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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
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प्रदेशबन्ध के साथ होने वाले कर्म नियमतः भोगे जाते हैं पर अनुभाग बंध के रूप में आने वाले कर्मों का भोग वैकल्पिक होता है। वे कभी विपाक रूप में भोगे जाते हैं, कभी नहीं भी।
प्रश्न उभरता है कर्मबन्ध की प्रक्रिया में आत्मा और कर्म का संबंध कैसे होता है, क्योंकि आत्मा तो चेतन अमूर्त है जबकि कर्म जड़ मूर्त है। इस संदर्भ में आगम लेश्या के रूप में समाधान देता है। आत्मा और कर्म को जोड़ने वाला, लिप्त करने वाला सेतु है - 'लेश्या' जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होता है। पंचसंग्रह में कहा गया है कि जैसे आमपिष्ट से मिश्रित गेरू मिट्टी के लेप द्वारा दीवार रंगी जाती है वैसे ही शुभ-अशुभ भावरूप लेश्या द्वारा आत्मा के परिणाम लिप्त होते हैं।'
संसार की सीमाओं का विस्तार या समीकरण पूर्वकृत कर्मों की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर अधिक टिका है, क्योंकि कर्मबंध में परिणाम की बात महत्वपूर्ण है। जैसे शुभाशुभ परिणाम होंगे, उसी अनुपात में कर्मबन्ध होगा। परिणामे बन्ध:' कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग-द्वेष के अध्यवसाय से होता है, क्योंकि रागद्वेषजनित आत्म परिणामों को ही कर्म का बीज कहा गया है। लेश्या के आत्मा के शुभ-अशुभ परिणाम हैं जो कर्मबंध का कारण बनते हैं, अत: कहना होगा कि लेश्या और कर्म में कारण-कार्य का संबंध है। लेश्यायें या आत्मा के विभिन्न परिणाम स्निग्ध-रुक्ष दशा में तद्-तद् कर्मबन्ध का कारण बनते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में शुभ-अशुभ लेश्या को कर्मलेश्या का नाम दिया है। यह जीव को संसार चक्र में घुमाती है और पुण्य-पाप शुभ-अशुभ भावों से जोड़ती है।' लेश्या : परिभाषा के आलोक में
लेश्या शब्द का प्रयोग जैन आगम स्थलों में अनेक स्थलों पर हुआ है, पर इसकी परिभाषा कहीं उपलब्ध नहीं होती है। इसका प्रमुख कारण प्राचीन साहित्य की शैली ही रहा प्रतीत होता है। प्राचीन साहित्य में किसी वस्तु का स्वरूप परिभाषा से स्पष्ट न करके उसे भेद-प्रभेदों से समझाया जाता था। आगम साहित्य में भी लेश्या के भेदों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
आगम के व्याख्या साहित्य में सर्वप्रथम इस विषय पर अपनी लेखनी नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने उठाई है। वे लिखते हैं - कृष्ण आदि द्रव्य वर्गणाओं की सन्निधि से होने वाला जीव का परिणाम लेश्या है। इसी प्रसंग में वे एक प्राचीन गाथा भी उद्धत करते हैं -
1. भगवती सूत्र 1/190; 2. जैनेन्द्र शब्द कोश, भाग-3, पृ. 422 3. पंचसंग्रह 1/143; 4. समयसार 2658 5. उत्तराध्ययन 32/7 6. उत्तराध्ययन 34/1; 7. पंचसंग्रह 1/142; 8. भगवती सूत्र 1/1/ प्र. 53 की टीका।
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