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लेश्या और मनोविज्ञान
संतुलित भोजन शरीर को पुष्ट और व्यक्ति को तुष्ट करता है। दण्ड आदि का प्रहार दुःखी बनाता है। कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ अत्यन्त घनिष्ठ संबंध होने के कारण उसका प्रभाव भी उतना ही गहरा होता है। निश्चय दृष्टि से आत्मा स्वरूपतः अमूर्त/अपौद्गलिक होने पर भी संसार दशा की अपेक्षा से मूर्त है। अमूर्त ज्ञान पर भी जब मूर्त मादक द्रव्यों का असर होता है तब कथंचित् मूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्मपुद्गलों की अन्त:क्रिया होने में कहीं कोई विप्रतिपत्ति नहीं है।
जड़ और चेतन के संयोग के संबंध में तीसरा प्रश्न है - इस संबंध को कौन प्रगाढ़ कर रहा है ? आत्मा के साथ जुड़ा कर्मशरीर निरन्तर प्रयत्नशील है। जैन-दर्शन की तरह अन्य दार्शनिक धाराएँ भी कर्म की सत्ता को स्वीकार करती हैं और इसे वासना, संस्कार इत्यादि रूपों में मान्यता देती हैं। पर जैन-दर्शन की तरह इसकी पौद्गलिक सत्ता स्वीकार नहीं करती। कर्मशरीर को एक ऐसा ऊर्जा भण्डार प्राप्त है जहाँ से निरन्तर विद्युत प्राप्त हो रही है। पारिभाषिक शब्दावली में इस ऊर्जा भण्डार को 'आश्रव" कहा गया है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग - ये पाँच आश्रव निरन्तर ऐसे पुद्गलों को आकृष्ट करते हैं जो सूक्ष्म शरीर को संपुष्ट कर रहे हैं।
हमारे शरीर में विद्युत आगमन की तीन प्रणालियाँ हैं - एक हमारा स्थूल शरीर और दूसरे उसके सहयोगी वाणी और मन। पारिभाषिक शब्दावली में इन्हें योग कहा गया है। काययोग, वचनयोग और मनोयोग - इन तीनों साधनों के द्वारा पुद्गलों के खींचने की प्रक्रिया को दीपक के उदाहरण से समझाया गया है। दीपक जल रहा है , बाती निरन्तर तेल को खींच रही है, इसी प्रकार इन तीनों से जुड़ी हमारी प्राणधारा निरन्तर कर्म पुद्गलों को आकृष्ट कर रही है। ___ पुद्गल के योग में भूमिका निभाती है - चंचलता। इस चंचलता की उपजीवी अन्य चार समस्याएँ हैं - मिथ्यादृष्टि, आकांक्षा, प्रमाद और आवेश। हवा न मिलने पर जिस प्रकार आग बुझ जाती है, उसी प्रकार योगजनित चंचलता के न होने पर ये चारों समाप्त हो जाते हैं।
भगवती सूत्र में कर्मबन्ध के हेतुओं को गौतम और महावीर के संवाद से समझाया गया है।
भंते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंधन करता है ? हाँ गौतम!
1. आश्रव - जिस परिणाम से आत्मा के कर्मों का आश्रवण-प्रवेश होता है, उसे आश्रव-कर्मबन्ध
का हेतु कहा जाता है। 2. कायवाङ्मनकर्मयोगः, तत्वार्थसूत्र 6/1; 3. तत्वार्थसूत्र टीका भाग-1, पृ. 343
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