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प्रथम अध्याय लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
जैन-दर्शन का द्वैतवाद और लेश्या का प्रत्यय
सृष्टिवाद के सन्दर्भ में दर्शन जगत् की दो मुख्य धाराएँ हैं - अद्वैतवाद और द्वैतवाद । अद्वैतवाद के अनुसार चेतन और अचेतन (जड़) इन दो द्रव्यों में से कोई एक द्रव्य ही सृष्टि का उपादान है। किसी एक के द्वारा ही दूसरे की उत्पत्ति हो जाती है। द्वैतवादी दर्शन की धारणा इससे सर्वथा भिन्न है। वह जड़ और चेतन दोनों को समान रूप से सृष्टि का मुख्य घटक मानता है। चेतन का अस्तित्व पुद्गल के माध्यम से प्रकट होता है। देह पौद्गलिक है। देह और चेतन का बहुत गहरा संबंध है। ___ जैन-दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। उसकी दृष्टि में जड़ और चेतन का संयोग संसार है
और उनका वियोग मोक्ष है। इसी तथ्य को भगवती सूत्र में प्रकारान्तर में प्रस्तुत किया गया है। गौतम जीव और जगत् के वैचित्र्य के संबंध में भगवान महावीर के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखते हैं। महावीर प्रत्युत्तर में कहते हैं - गौतम ! जीव और जगत् का यह सारा वैचित्र्य कर्मकृत ही है, अकर्मकृत नहीं।' जब हम जड़ और चेतन के संयोग की बात करते हैं तो यह पहला प्रश्न उभरता है कि यह संयोग कब से है ? जैन-दर्शन इस संयोग को अनादि मानता है। जैसे वृक्ष और बीज में, मुर्गी और अण्डे में पौर्वापर्य नहीं खोजा जा सकता, वैसे ही इनमें पौर्वापर्य नहीं निकाला जा सकता। ये दोनों शाश्वत रूप में साथसाथ चले आ रहे हैं। ऐसा कोई समय नहीं, जब जीव रहा और उसके साथ शरीर न रहा हो। जीव और शरीर का यह संबंध ही जड़ और चेतन का संयोग है। मुक्त आत्माएँ इस संबंध की अपवाद हैं।
संयोग की चर्चा करने के साथ ही यह दूसरा प्रश्न भी उभर कर सामने आ जाता है कि जड़ और चेतन का स्वभाव सर्वथा भिन्न है फिर इन दोनों में अंत:क्रिया कैसे होती है? यह प्रश्न वहाँ पैदा होता है जहाँ जीव को सर्वथा अमूर्त माना जाता है। चूंकि जैन-दर्शन की दृष्टि में हर संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है, इसीलिए मूर्त के द्वारा मूर्त जड़ शरीर के आकर्षण में कहीं कोई कठिनाई नहीं है । स्थूल पौद्गलिक पदार्थ भी जब मनुष्य को प्रभावित करते हैं, फिर कर्म जैसे सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों का तो कहना ही क्या ? बेड़ी मनुष्य को बाँधती है। मादक द्रव्य उसे पागल बनाते हैं। क्लोरोफार्म के प्रयोग से मूर्छा आ जाती है।
1. भगवती सूत्र 12/120, पृ. 567
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