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प्राथमिकी
शोधन द्वारा व्यक्ति के बाहरी और भीतरी दोनों व्यक्तित्व रूपान्तरित होते हैं। व्यक्तित्व बदलाव की प्रक्रिया में मनोविज्ञान में बताई गई निर्देशन, सम्मोहन, मनोविश्लेषण, आस्था आदि विधियां और जैन साधना पद्धति में निर्देशित तप, कायोत्सर्ग, अनुप्रेक्षा, प्रतिक्रमण और श्रद्धा की चर्चा उपलब्ध होती है। ___ व्यक्तित्व बदलाव के सन्दर्भ में ध्यान प्रक्रिया अपनी विशिष्ट भूमिका रखती है। ध्यान संवर और निर्जरा की पद्धति है। इससे पुराने संस्कारों का प्रक्षालन होता है तथा नए कर्मसंस्कारों का मार्ग अवरुद्ध होता है। योगों की चंचलता समाप्त होती है । इन्द्रियां नियन्त्रित
और कषाय उपशमित होती हैं। यह निवृत्तिप्रधान जीवन का निर्माण करता है। इसमें प्रासंगिक रूप से ध्यान के भेद, प्रभेद, ध्यान की पूर्व तैयारी आदि के संबंध में विमर्श आवश्यक है।
जैन-दर्शन में ज्ञान, तपस्या, ध्यान, सभी के साथ लेश्या-विशुद्धि की बात जुड़ी है। इसके बिना सारे प्रयत्न व्यर्थ हैं । लेश्या विशुद्धि के लिए भावों के प्रति जागरूकता अपेक्षित है। रूपान्तरण भावजगत/लेश्याजगत की घटना है। जब भाव बदलता है तो विचार अपने आप बदल जाता है। जब विचार बदलता है तब विचार के पीछे चलने वाला व्यवहार भी बदलता है। ___ व्यक्तित्व रूपान्तरण का प्रारम्भ स्थूल शरीर की यात्रा से होता है। धीरे-धीरे सूक्ष्म का स्पर्श करता है । इस सन्दर्भ में प्रेक्षाध्यान की आध्यात्मिक वैज्ञानिक प्रक्रिया विमर्शनीय है। इसका आधार है आगम साहित्य व्याख्या ग्रंथ तथा उत्तरवर्ती साहित्य में आए हुए ध्यान विषयक प्रकरण। ध्यानाभ्यास की इस पद्धति में प्राचीन दार्शनिकों से प्राप्त बोध एवं साधना पद्धति को आधुनिक वैज्ञानिक सन्दर्भो में प्रतिपादित किया गया है।
साधना का मुख्य सूत्र है - 'जानो और देखो'। हम जैसे-जैसे देखते जाते हैं, वैसेवैसे जानते चले जाते हैं। देखना वह है, जहां केवल चैतन्य सक्रिय होता है। जहां प्रियता और अप्रियता का भाव आ जाए, राग-द्वेष उभर जाए, वहां देखना-जानना गौण हो जाता है। प्रेक्षाध्यान पद्धति में हम बिना प्रियता-अप्रियता के जानने-देखने का अभ्यास करते हैं।
कायोत्सर्ग, श्वास-प्रेक्षा, शरीर-प्रेक्षा, समवृत्ति-श्वासप्रेक्षा, चैतन्यकेन्द्र-प्रेक्षा, लेश्याध्यान, ये सारी जीवन रूपान्तरण की प्रक्रियाएं हैं।
रंगध्यान - जैन साधना पद्धति में चैतन्य केन्द्रों पर रंगध्यान का प्रयोग बहुत प्राचीनकाल से होता रहा है। शास्त्रों में महामंत्र के पांच पदों का पांच विशिष्ट केन्द्रों पर पांच रंगों के साथ ध्यान करने का निर्देश मिलता है।
ध्यान करते समय धुंधले, भद्दे और अमनोज्ञ विद्युत विकिरणों को निष्प्रभावी बनाने हेतु स्पष्ट, चमकीले रंगों का प्रयोग मनोवैज्ञानिक प्रभाव दिखाता है।
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