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लेश्या और मनोविज्ञान देश, काल, परिस्थिति के साथ बदलता मनुष्य भिन्न-भिन्न रूपों में सामने आता है। प्रश्न उभरता है कि आखिर इतना बदलाव क्यों? ऐसा कौन-सा वह प्रेरक तत्त्व है जो व्यक्ति द्वारा अवांछनीय व्यवहार करवा लेता है और वह चाहते हुए भी बदल नहीं पाता।
इस संदर्भ में मनोविज्ञान वंशानुक्रम, वातावरण, शरीर-रचना, नाड़ी-ग्रंथि-संस्थान, शरीर-रसायन आदि तत्त्वों को कारण मानता है। लेश्या सिद्धान्त भी इन सबको किसी न किसी रूप में स्वीकार करता है। संहनन, संस्थान, लिंग, क्षेत्र, काल आदि को निमित्त मानते हुए भी यह मुख्य कारक भाव-संस्थान और कर्म-संस्कार को मानता है।
व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों की अनुकूलता के बाद भी यदि व्यक्तित्व संगठित, समायोजित और परिपक्व नहीं बन पाता है तो इसका मुख्य कारण है अशुभ लेश्या में निरन्तर जीना । कर्म से जुड़ी लेश्या व्यक्तित्व के संगठन एवं विघटन का मुख्य कारक है । मोहनीय कर्म से जुड़ी अशुभ लेश्या में कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ और नोकषाय - हास्य रति, अरति आदि आवेगों, उपआवेगों का प्राबल्य रहता है। व्यक्तित्व विघटन का मुख्य तत्त्व है - मूर्छा यानी राग-द्वेष के संस्कार । प्राणी में तेजोलेश्या जागती है तभी धर्म की यानी अध्यात्म की यात्रा शुरू होती है।
लेश्या सिद्धान्त के अनुसार कर्म-विशुद्धि के आधार पर व्यक्तित्व के दो प्रकार किये जा सकते हैं - 1. औदयिक व्यक्तित्व,2. क्षायोपशमिक, औपशमिक या क्षायिक व्यक्तित्व। इस संदर्भ में सात्विक, राजस और तामस व्यक्तित्व और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किये गए व्यक्तित्व के प्रकार भी विषय को स्पष्टता देते हैं । हीपोक्रेट्स, फ्रायड, युग, क्रेशमर-शैल्डन आदि विद्वानों द्वारा प्रस्तुत व्यक्तित्व विभाजन भी महत्वपूर्ण है।
जैन साहित्य में लेश्या के आधार पर व्यक्तित्व के जो छह प्रकार बताए गए हैं उनमें एक-एक प्रकार के गुणों की जो व्याख्या की गई है उसका मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्व है। यह चरित्र व्याख्या निषेधात्मक, विधेयात्मक, बहिर्मुखी-अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की पारदर्शी प्रस्तुति है। लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
लेश्या का कर्मशास्त्रीय विमर्श व्यक्तित्व रूपान्तरण की प्रेरणा है। कर्मों की दस अवस्थाओं में उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उदीरणा आदि अवस्थाएं व्यक्ति के पुरुषार्थ की अपेक्षा रखती हैं। साधना की विविध पद्धतियों द्वारा मूर्छा के टूटने पर शुभ लेश्यायें जागती हैं और व्यक्तित्व बदलता है।
साधना की श्रेणियों में उपशम श्रेणी वाला साधक आवेगों, संवेगों, अभिवृत्तियों को दबाता हुआ आगे बढ़ता है और क्षपक श्रेणी वाला जड़ से इन्हें उखाड़ देता है । यद्यपि हमारे लिए अभीष्ट क्षपक श्रेणी की ही प्रक्रिया है पर उपशम श्रेणी से भी एक सीमा तक व्यक्तित्व समायोजित होता है। जैनदर्शन मनोविज्ञान की तरह दमन को अवांछनीय नहीं मानता, अपितु वह दमन की प्रक्रिया से धीरे-धीरे शोधन की ओर बढ़ने की उत्प्रेरणा जगाता है।
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