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लेश्या और मनोविज्ञान
ऊर्जा, सक्रियता और बलिदान को दर्शाने वाला है। इस रंग के ध्यान द्वारा पांच इन्द्रियों के विषय पर विजय पाई जा सकती है, क्योंकि दर्शनकेन्द्र मस्तिष्क का स्थान है और मस्तिष्क में सभी इन्द्रियों का कार्य सम्पादित होता है। दिव्य श्रवण, दृश्य, गन्ध, आस्वाद एवं स्पर्श की शक्ति भी इससे उपलब्ध होती है ।
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दर्शनकेन्द्र पर तेजोलेश्या का लाल रंग में ध्यान करने से प्राणशक्ति जागती है । अन्तर्मुखी दृष्टिकोण बनता है । आगम में तेजोलेश्या को आत्मविकास का द्वार माना गया है। जब तक तेजोलेश्या नहीं जागती, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या से घिरा व्यक्ति निषेधात्मक जीवन जीता रहता है । जब तेजोलेश्या जागती है तब दर्शनकेन्द्र / आज्ञाचक्र खुलता है। शरीर, मन और आत्मा का ऊर्ध्वारोहण होने लगता है ।
रंग चिकित्सक भी मानते हैं कि लाल रंग का प्रभाव मुख्यतः भौतिक शरीर से संबंधित होने पर भी यह तारामण्डलीय (astral), मानसिक (Mental) और आध्यात्मिक (Spiritual) शरीरों को भी प्रभावित करता है। लाल रंग मूल प्रवृत्तियों तथा इच्छाओं को जगाते हुए अवचेतन मन पर कार्य करता है और यही रंग हमारे भीतर जीवन की आध्यात्मिक शक्ति, योग्यता, पराक्रम और शारीरिक क्षमता को प्रेषित करता है । '
इस प्रकार दर्शनकेन्द्र पर लाल रंग और पिट्यूटरी ग्रंथि का समायोजन राग से विराग की ओर मोड़ देता है। चेतना आर्त्त- रौद्र-ध्यान से धर्मध्यान में प्रवेश कर विशुद्धता की ओर बढ़ती है। व्यक्तित्व रूपान्तरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
पद्मलेश्या का ध्यान लेश्या ध्यान में ज्ञानकेन्द्र (सहस्रार चक्र) पर पीले रंग का ध्यान करवाया जाता है। भारतीय योगियों ने पीले रंग को जीवन का रंग माना है। आगमों में पद्मलेश्या का रंग पीला माना गया है। लेश्याध्यान में ज्ञानकेन्द्र पर पीले रंग का ध्यान आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। पीला रंग ध्यान की पवित्र शक्ति माना गया है। जो चेतना से जुड़ा है और नाभि चक्र / तैजसकेन्द्र पर नियंत्रण करता है। इसमें स्वनियंत्रण तथा धैर्य की गुणात्मकता है। यह गहरी समस्याओं के समाधान की क्षमता रखता है । ज्ञानकेन्द्र पर ( जिसे शरीर शास्त्रीय भाषा में वृहद् मस्तिष्क, हठयोग में सहस्रार चक्र कहा गया है) पर ध्यान करते हैं तो जितेन्द्रिय होने की स्थिति घटित होती है। योगशास्त्रविदों ने ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों का परस्पर गहरा संबंध माना है ।
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इस केन्द्र पर भय, काम, वासना, सांसारिक - भाव तथा संवेगात्मक प्रभाव जागते रहते हैं। शरीर शास्त्रीय भाषा में यह एड्रीनल के अधिक स्राव का कारण है । अतः माना गया है कि एड्रीनल स्राव को पिट्यूटरी ग्रंथि नियंत्रित करती है और पिट्यूटरी ग्रंथि के स्थान पर योगियों ने ज्ञानकेन्द्र / सहस्रार चक्र की अवधारणा की है। कृष्ण एवं नील लेश्या में व्यक्ति अजितेन्द्रिय होता है । पद्मलेश्या में जितेन्द्रियता के भाव पैदा हो जाते हैं ।
1. Colour Meditations, p. 9
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