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प्राथमिकी हैं। शुभलेश्या से पुण्य बन्धता है, आत्म-विशुद्धि भी होती है, फिर भी बन्धन बन्धन होता है इसलिए अलेश्य बनना साधक का मुख्य उद्देश्य है।
जैन आगमों में लेश्या के साथ जुड़े विशेषण आत्म-विशुद्धि के परिचायक हैं। आचारांग में श्रद्धा का उत्कर्ष प्रतिपादित करते हुए मनोयोग के अर्थ में लेश्या का प्रयोग हुआ है। शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे अर्थात् उनकी लेश्या में/विचारों में विचरे। सूत्रकृतांग में भगवान महावीर ने कहा - जो राग और मोह को धुन डालता है वह भिक्षु होता है और ऐसे भिक्षु को विशुद्ध लेश्यावान यानि शुद्ध अन्त:करण वाला कहा है। सुविसुद्धलेसे' शब्द का अर्थ चूर्णिकार ने जहां शुक्ललेश्या वाला मुनि किया है, वहां वृत्तिकार ने लेश्या का अर्थ अन्त:करण की वृत्ति किया है।
शिष्य के गुणात्मक पक्ष को प्रस्तुत करते हुए मुनि के विषय में कहा गया है कि जो गुरु द्वारा अनुशासित होने पर भी पूर्ववत् अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है, शांतचित्त रहता है, वह तथार्चि कहलाता है। यहां अर्चि का अर्थ लेश्या चित्तवृत्ति किया गया है। उत्तराध्ययन में आत्मानन्द की अनुभूति कराने वाले मुनि को आत्म-प्रसन्नलेश्य कहा है। औपपातिक सूत्र में परमविशुद्ध परिणाम वाली लेश्या से संयुक्त मुनि को 'अप्रतिलेश्य' नाम दिया गया है।
लेश्या बाहरी और भीतरी चेतना को रूपान्तरित करती है, क्योंकि लेश्या परिणामों का परस्पर परिणमन होता रहता है। परिणामों के आधार पर व्यक्ति कभी अच्छा, कभी बुरा बनता है। लेश्या सिद्धान्त का मानना है कि भावों की विशुद्धता से कृष्ण लेश्या वाले जीव क्रमशः अथवा बिना क्रम के शुक्ल लेश्या तक पहुंच जाता है जबकि कषाय की तीव्रता में संक्लिष्ट परिणामों के होने पर शुक्ललेश्या तक पहुंचा हुआ व्यक्ति भी पुनः पतनोन्मुख बन जाता है । आत्मविशुद्धि का यह आरोहण-अवरोहण विशुद्ध लेश्या पर आधारित है और विशुद्ध लेश्या की आधार भूमि तैयार करता है - ध्यान, ज्ञान, तपस्या, भावों का नैर्मल्य और कषायों की मन्दता।
जैन-दर्शन की मान्यता है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान में जीवों के संक्लिष्ट परिणाम होते हैं, तीव्र कषाय रहती है। अतः उनके कृष्ण, नील और कपोत ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं पर धर्मध्यान में शुभलेश्या की उपस्थिति रहती है। धर्मध्यान में ही अध्यात्म की यात्रा शुरू होती है। शुक्लध्यान के तीन चरणों तक लेश्या का भाव बना रहता है। ध्यान से लेश्या-विशुद्धि होती है और एक समय ऐसा भी आता है जब जीव अलेशी बन जाता है। जातिस्मृतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के साथ भी लेश्या विशुद्धि को एक आवश्यक अंग माना गया है। आत्म-विशुद्धि के सन्दर्भ में लेश्या के साथ अध्यवसाय का गहरा संबंध है, क्योंकि लेश्या अध्यवसाय का हेतु है और संक्लिष्टअसंक्लिष्ट अध्यवसायों से जीव दुर्गति-सुगति को प्राप्त होता है।
लेश्या का सैद्धान्तिक विवेचन दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों साहित्य में उपलब्ध है। वहां नाम, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति, आयु, प्रदेश,
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