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________________ लेश्या और मनोविज्ञान लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले अनेक पुद्गलों के समूह हैं उनमें एक समूह वर्गणा का नाम लेश्या है । 8 जैन आगम साहित्य में लेश्या की कई अर्थों में प्रस्तुति दी गई है। आत्मा का परिणाम, अध्यवसाय, अन्तःकरण वृत्ति, तेज, दीप्ति, ज्योति, किरण, देह-सौन्दर्य, ज्वाला, सुख, वर्ण आदि विविध अर्थों में प्रयुक्त लेश्या जीवन के बाहरी और भीतरी दोनों पक्षों की व्याख्या करती है। लेश्या के दो रूप होते हैं - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । एक आत्मा को प्रभावित करती है, दूसरी शरीर को । यद्यपि भावलेश्या अवर्णी, अगन्धी, अरसी, अस्पर्शी होती है पर द्रव्यलेश्या पौद्गलिक होने के कारण उसमें पुद्गल के सभी गुण - वर्ण, गन्ध, रस, , स्पर्श पाये जाते हैं। इसलिए ग्रहण किए गए शुभ-अशुभ पुद्गलों के आधार पर व्यक्तित्व पहचाना जा सकता है। भावलेश्या आत्मा का परिणाम कहा गया है। प्रज्ञापना में जीव के दस परिणामों में लेश्या कभी एक परिणाम माना है। परिणाम शुभ-अशुभ दोनों होते हैं। इन्हीं के आधार पर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप कर्मबन्ध के चार प्रकारों का निर्माण होता है । जैन आगमों में कषाय और योग से अनुरंजित लेश्या की व्याख्या इस बात की सूचक है कि कषायों की तीव्रता और मन्दता तथा योग की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति द्वारा जो आत्मपरिणाम बनते हैं उन्हीं के आधार पर आत्मा का आवृत्त - अनावृत्त स्वरूप प्रकट होता है। जब तक लेश्या के साथ कषाय होता है, जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। जब जीव आत्म-विकास की बारहवीं भूमिका क्षीणमोहगुणस्थान पर पहुंचता है तब संसार - संतति का क्रम टूटता है। साम्परायिक क्रिया, जो राग-द्वेष - मोह की प्रतीक कर्मबन्धक है, रुक जाती है। राग-द्वेष रहित योग की उपस्थिति होने पर लेश्या द्वारा ईर्यापथिक क्रिया राग-द्वेष रहित अवश्य चलती है पर उसमें कर्मबन्ध की स्थिति और विपाक का सामर्थ्य नहीं होता है। पहले क्षण कर्म बन्धता है, दूसरे क्षण निर्जरण हो जाता है। कर्मों के उदय, उपक्षम, क्षय और क्षयोपक्षम से होने वाले भावों की उपस्थिति लेश्यावान आत्मा में भी रहती है। अनुयोगद्वार में लेश्या को औदयिक भाव माना है, क्योंकि इससे कर्मों का आश्रव होता है, पुण्य-पाप का बन्ध होता है। लेश्या को नव-पदार्थों के आश्रव तत्त्व में समाविष्ट माना गया है । इसीलिए इसे कर्म लेश्या कहा गया । यह क्षायोपशमिक, क्षायिकभाव भी है, क्योंकि शुभलेश्या से कर्म टूटते हैं, इससे निर्जरा होती है। लेश्या जन्म-मरण के सिद्धान्त से जुड़ी है। कर्मावृत्त आत्मा मृत्यु के बाद कौन सी गति में कहां जन्म लेगी, इसका निर्णय भी लेश्या द्वारा होता है। यद्यपि लेश्या जीव के मुक्ति में बाधक तत्त्व है, क्योंकि लेश्या से पुण्य-पाप का बन्ध होता है। पुण्य-पाप दोनों ही हेय तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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