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________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान 175 आंखों से देखा नहीं जा सकता किन्तु धुंआ देखकर उसे जाना जा सकता है इसलिए धुंआ उसका लक्षण-लिंग है। आगमों में धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान दोनों के लक्षण बतलाए हैं। फल - धर्मध्यान का प्रथम फल है - आत्मज्ञान। कर्मक्षीण होने पर मोक्ष होता है और कर्म आत्मज्ञान से क्षीण होता है और आत्मज्ञान ध्यान से होता है। यह ध्यान का प्रत्यक्ष फल है। तत्त्वानुशासन में लिखा है कि ध्यान से ज्ञान, विभूति, आयु, आरोग्य, संतुष्टि, पुष्टि और शारीरिक धैर्य प्राप्त होते हैं।' निष्कर्ष रूप में ध्यान की पूर्व तैयारी को हम आचार्य अकलंक के शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं - उत्तम शरीर संहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यान साधना नहीं होती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी-तट, पुल, श्मशान, जीर्ण उद्यान और शून्यागार आदि किसी भी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु-समशीतोष्ण, अति-वायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह है कि सब तरफ से बाह्य आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यंकासन में बैठना चाहिए। उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्छल रखना चाहिए। बायें हाथ पर दाहिना हाथ रखकर न खुले हुए और न बन्द किए किन्तु कुछ खुले हुए, दांतों पर दांत रखकर, कुछ ऊपर किए हुए, सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किए हुए, प्रसन्नमुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, ह्रास, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर भन्द-मन्द श्वासोच्छवास लेने वाला साधु ध्यान की तैयारी करता है। वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीर क्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छवास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो, बाह्य आभ्यन्तर द्रव्यपर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क के सामर्थ्य से युक्त हो, अर्थ और व्यंजन तथा मन, वचन, काय की पृथक-पृथक संक्रान्ति करता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर और व्यंजनान्तर में संक्रमण करता है। इस प्रकार संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि ध्यान के चार अंग हैं - ध्याता, ध्यान, ध्येय और समाधि। जिसकी आत्मा स्थिर होती है, वह ध्याता-ध्यान करने वाला होता है। मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। विशुद्ध आत्मा ध्येय है और उसका फल समाधि है। 1. योगशास्त्र 4/113; 3. तत्वार्थराजवार्तिक 9/44; 2. तत्वानुशासन 198 4. सम्बोधि 12/45 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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