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________________ लेश्या और मनोविज्ञान किसी भी साधक का ध्यान यकायक निरालम्बन में नहीं लग पाता, इसलिए स्थूल इन्द्रिय गोचर पदार्थों से सूक्ष्म इन्द्रियों के अगोचर पदार्थों का चिन्तन करना आवश्यक माना गया है। ज्ञानार्णव तथा योगसार में लिखा है कि आलम्बन का ही दूसरा नाम ध्येय है।' ध्यानशतक में ध्याता के विशेष गुणों का उल्लेख है । ध्याता 1. अप्रमाद - मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा - ये पांच प्रमाद हैं । इनसे जो मुक्त होता है। 2. निर्मोह - जिसका मोह उपशान्त या क्षीण होता है। 3. ज्ञान सम्पन्न - जो ज्ञान सम्पदा से युक्त होता है वही व्यक्ति धर्मध्यान का अधिकारी होता है । 174 सामान्य धारणा यही रही है कि ध्यान का अधिकारी मुनि होता है। रायसेन और शुभचन्द्र ने भी यही मत प्रस्तुत किया। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थ के धर्मध्यान होता ही नहीं, अभिप्राय यह है कि उसके उत्तम स्तर का ध्यान नहीं होता। धर्मध्यान के तीन स्तर हो सकते हैं - उत्तम, मध्यम और अवर। उत्तमकोटि का ध्यान अप्रमत्त व्यक्तियों के होता है । मध्यम और अवर का ध्यान शेष सभी के हो सकता है। सिर्फ सीमा यही है कि इन्द्रिय और मन पर उनका निग्रह होना चाहिए । I अनुप्रेक्षा- अनुप्रेक्षा का अर्थ है गहन चिन्तन, क्योंकि आत्मा में विशुद्ध चिन्तन होने से सांसारिक वासनाओं का अन्त होता है और साधक विकास करता हुआ मोक्षाधिकारी बनता है। अनुप्रेक्षा से कर्मों का बन्धन शिथिल पड़ता है। साधक को धर्मप्रेम, वैराग्य, चारित्र की दृढ़ता तथा कषायों के शमन हेतु इनका अनुचिन्तन करते रहना चाहिए, क्योंकि जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध होती है, वह सब दुखों से मुक्त होता है। इसके अनुसार भावना/ अनुप्रेक्षा का जीव के साथ गहरा संबंध है। - लेश्या - प्राणी में भावों का उतार-चढ़ाव सदा रहता है। वे अच्छे या बुरे एक समान नहीं रह सकते। विचारों की शुद्धि, भावों की शुद्धि से लेश्या की शुद्धि भी निश्चित है । धर्मध्यान और शुक्लध्यान से प्रशस्त विचार प्रवाह चलता है। जिससे धर्मध्यानी में तेज, पद्म और शुक्ललेश्या जागती है । शुक्लध्यानी में प्रथम दो चरण में शुक्ललेश्या, तीसरे चरण में परम शुक्ललेश्या और चौथे चरण में लेश्या का अभाव होता है। लिंग - आन्तरिक गुणों की पहचान व्यक्ति की बाहरी अभिव्यक्ति है। ध्यान व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्ति है, उसे देखा नहीं जा सकता किन्तु उस व्यक्ति की सत्य विषयक आस्था, पवित्रता देखकर उसकी पहचान की जा सकती है। इसीलिए सत्य की आस्था उसका लिंग है, लक्षण है, हेतु है । जैसे तर्कशास्त्र की भाषा में सुदूर प्रदेश में अग्नि होती है, उसे 1. ज्ञानार्णव 34 / 1, योगसार 98; 2. झाणज्झयणं, 63; 3. झाणज्झयणं, 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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