SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान 2. अपायविचय - जिस ध्यान में राग-द्वेष, क्रोध आदि कषायों तथा प्रमाद आदि विकारों से उत्पन्न होने वाले कष्टों तथा दुर्गति का चिन्तन किया जाता है, वह अपायविचय कहलाता है । अपायविचय ध्यान करने वाला इहलोक परलोक संबंधी अपायों को परिहार करने के लिए उद्यत हो जाता है और इसके फलस्वरूप पापकर्मों से पूरी तरह निवृत्त हो जाता है, क्योंकि पापकर्मों का त्याग किए बिना अपाय से बचा नहीं जा सकता । 3. विपाकविचय - जिस ध्यान से प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के कर्मफल के उदय का चिन्तन किया जाता है, वह विपाकविचय है । 4. संस्थानविचय ध्यान में सम्पूर्ण लोक संस्थान पर चिन्तन होता है । द्रव्यों की विविध आकृतियों और पर्यायों को ध्येय बनाकर उसमें ध्याता एकाग्र होता है । 1 शुक्लध्यान शुक्लध्यान आत्मा की अत्यन्त विशुद्धावस्था को कहा जाता है। इस ध्यान से मन की एकाग्रता के कारण आत्मा में परम विशुद्धता आती है और कषायों - रागभावों अथवा कर्मों का सर्वथा परिहार हो जाता है। शुक्लध्यान कषायों के सर्वथा उपशांत होने पर होता है तथा चित्त क्रिया और इन्द्रियों से रहित होकर ध्यान धारणा के विकल्प से मुक्त होता है । - शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं : 1. पृथकत्ववितर्क सविचारी - ध्यान के आलम्बन एवं सालम्बन दो भेद होते हैं। ध्यान में साम्रगी का परिवर्तन भेद दृष्टि एवं अभेद दृष्टि से होता भी है और नहीं भी होता है। जब एक द्रव्य से अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों-नयीं से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन किया जाता है तथा शब्द से अर्थ और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता है, उस स्थिति को "पृथकत्ववितर्क सविचारी" कहा जाता है। 171 2. एकत्ववितर्क अविचारी - जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्वश्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ और मन, वचन, काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता है, इस स्थिति को एकत्ववितर्क-अविचारी कहा जाता है। 1. ज्ञानार्णव 41 /4; Jain Education International 3. सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति - जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता - श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है। इसका निवर्तन पतन नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है । 2. ठाणं 4/69 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy