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लेश्या और मनोविज्ञान
आगम में रौद्रध्यान के निम्न लक्षणों का उल्लेख किया गया है - उत्सन्नदोष - प्रायः हिंसा आदि से प्रवृत्त रहना।। बहुदोष - हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना। अज्ञानदोष - अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना। आमरणान्तदोष - मरणान्तक हिंसा आदि करने का अनुपात न करना।
इस प्रकार रौद्रध्यानी सदा दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के उपाय सोचता रहता है । फलतः वह भी दूसरों के दुःख से पीड़ित होता है , ऐहिक, पारलौकिक भय से आतंकित होता है। अनुकम्पा से रहित, नीच कर्मों में निर्लज्ज एवं पाप में आनन्द मनाने वाला होता है।
रौद्रध्यान भी राग-द्वेष और मोह से व्याकुल जीव के होता है। वह संसार को विस्तार देने वाला तथा नरकगति का मूल कारण है । रौद्रध्यान को प्राप्त जीव के कर्मविपाक से होने वाली तीन प्रथम अशुभ लेश्याएं अति संक्लिष्ट होती हैं। यह ध्यान प्रथम पांच गुणस्थान तक होता है। __ आर्त और रौद्रध्यान साधना की दृष्टि से उपादेय नहीं है। इन्हें ध्यान से जोड़ने का एकमात्र अर्थ यही रहा कि आर्त्त-रौद्र परिणामों द्वारा भी चित्त एकाग्र बनता है। सुख की भांति दुःख भी व्यक्ति को एक ही बिन्दु पर चिन्तन करने के लिए विवश कर देता है । वास्तव में ध्यान से इनका संबंध नहीं।
धर्मध्यान - धर्मध्यान आत्म-विकास का प्रथम चरण है। स्थानांगसूत्र में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा है। धर्मध्यान उसके होता है, जो दस धर्मों का पालन करता है, इन्द्रियजयी होता है तथा प्राणियों के प्रति करुणाभाव रखता है।
ज्ञानार्णव में धर्मध्यान के अधिकारी की विशेषताएं बतलाते हुए कहा है कि धर्मध्यान का ध्याता यथार्थवस्तु का ज्ञान और संसार के वैराग्य सहित हो। इन्द्रियजयी, स्थिरचित्त, मुक्ति का इच्छुक हो, आलस्य रहित उद्यमी हो, शांतपरिणामी हो, धैर्यवान तथा प्रशंसनीय हो।'
ध्येय की दृष्टि से धर्मध्यान के चार भेद होते हैं - आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय ध्यान। 1. आज्ञाविचय - किसी भी तर्क से बाधित न होने वाली एवं पूर्वापर विरोध से
रहित सर्वज्ञों की आज्ञा को सन्मुख रखकर तात्त्विक रूप से अर्थों का चिन्तन करना आज्ञाविचय कहलाता है । आगमश्रुत में प्रतिपादित तत्त्व को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना धर्मध्यान का ध्येय है।
1. ठाणं 4/64;
2. झाणज्झयणं - 25%; 4. तत्वार्थसूत्र स्वोपज्ञभाष्य 9/39; 5. ज्ञानार्णव 27/3;
3. ठाणं 4/247 6. ठाणं 4/65
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