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________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान वह विवेकशून्य होता है, राग-द्वेष के कारण संसार भ्रमण करता है। ऐसे कुटिल, अशुभ चिन्तन के कारण उसकी अशुभ लेश्याएं कृष्ण, नील और कापोत होती हैं। ऐसे ध्यानी का मन आत्मा से हटकर सांसारिक वस्तुओं पर केन्द्रित रहता है और इच्छित या प्रिय वस्तुओं के प्रति अतिशय मोह के कारण उनके वियोग में या प्राप्त न होने पर दुःखित होता है । इसलिए इस ध्यान को अशुभ कहा गया और इसकी स्थिति छट्ठे गुणस्थान तक होती है। रौद्रध्यान - हिंसा, असत्य, चोरी और विषय-भोगों का रक्षा के निमित्त होने वाली एकाग्र चिन्ता रौद्रध्यान है । रौद्रध्यान का अर्थ है क्रूरता । जिसका चित्त क्रूर होता है, जो प्रतिशोध के भाव रखता है, हिंसा की भावधारा सतत बहती रहती है, दूसरों को गिराने, कुचलने में रस लेता है। असत्य, चोरी, संग्रह, दूसरों को ठगने में जो कुशल होता है, वह रौद्रध्यान का अधिकारी होता है ।' आगम साहित्य में रौद्रध्यान के चार प्रकार बतलाए हैं? 1. हिंसानुबन्धी- अतिशय क्रोधरूप पिशाच के वशीभूत होकर निर्दय अन्त:करण वाले जीव के जो प्राणियों के वध - - वैध, बन्धन, दहन, अंकन और मारण आदि का प्रणिधान जैसे कार्यों को न करते हुए भी उनके प्रति जो दृढ़ विचार होता है, वह हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है । 169 2. मृषानुबन्धी - ऐसा मायाचारी और प्रवंचना के पाप से युक्त अन्तःकरण वाले जीव केपिशुन, असभ्य, असद्भूत और भूतघात आदि रूप वचनों में प्रवृत्त न होने पर भी जो उनके प्रति दृढ़ अध्यवसाय होता है। वह मृषानुबन्धी ध्यान है । असत्य, झूठी कल्पनाओं से ग्रस्त होकर दूसरों को ठगना, धोखा देने का चिन्तन करना मृषावाद रौद्रध्यान है । मृषानुबन्धी व्यक्ति मनोवांछित फल प्राप्ति के लिये सत्य को झूठ या झूठ 1 को सत्य बनाकर लोगों को ठगता है । 3. स्तेयानुबन्धी - जो तीव्र क्रोध व लोभ से व्याकुल रहता है, जिसका चित्त (विचार), चेतन-अचेतन द्रव्य के अपहरण में संलग्न रहता है, चोरी संबंधी कार्यों, उपदेशों अथवा चोर प्रवृत्तियों में कुशलता दिखाता है, वह स्तेयानुबन्धी रौद्र ध्यान है। इस ध्यान में चौर्य कर्म के लिये निरन्तर व्याकुल रहना, , चिन्तित होना या दूसरों की सम्पत्ति के हरण से हर्षित होना या दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने का उपाय बताना आदि दुष्प्रवृत्तियां आती हैं । यह अतिशय निन्दा का कारण है। 4. संरक्षणानुबन्धी - क्रूर परिणामों से युक्त होकर तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को नष्ट करके ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति को भोगने की इच्छा रखना या शत्रु से भयभीत होकर अपने धन, स्त्री, कुपुत्र राज्यादि के संरक्षणार्थ तरह-तरह की चिन्ता करना संरक्षणानुबन्धी रौद्र ध्यान है । 1. ज्ञानावर्ण 26 /2; Jain Education International 2. ठाणं 4/63 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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