________________
लेश्या और मनोविज्ञान
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि मन सहित वाणी और काया का जो व्यापार होता है, उसका नाम भावक्रिया है। जो भावक्रिया है, वह ध्यान है ।
168
चित्त को किसी एक शुभ भाव में स्थिर करना ध्यान कहा गया है। जब तक चित्त स्थिर नहीं होगा, संवर निर्जरा नहीं हो सकती और बिना संवर निर्जरा के परम ध्येय की प्राप्ति नहीं होती । ध्यान या समाधि का निरूपण प्रकारान्तर से इस प्रकार भी किया जा सकता है कि जिसमें सांसारिक समस्त कर्मबन्धनों का नाश होता हो, ऐसे शुभ चिन्तन स्वरूप विमर्श को ध्यान कहा जाता है। ' तत्वानुशासन में तप, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्त: संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, सवीर्यध्यान आदि शब्द ध्यान के पर्याय रूप में प्रयुक्त हुए हैं। ध्यान का मुख्य लक्ष्य है - चित्त की निर्मलता, एकाग्रता,
जागरूकता।
ध्यान के भेद-प्रभेद
जैन आगमों एवं योग संबंधी अन्य जैन वाङ्मय में ध्यान के प्रमुख चार प्रकारों का उल्लेख मिलता है। ध्यान के चार प्रकार बतलाये गए हैं :- आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । प्रथम दो ध्यान संसार के कारण हैं, अन्तिम दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं । तत्त्वानुशासन में भी उल्लेख है कि प्रथम दो ध्यान अप्रशस्त और अशुभ हैं तथा अन्तिम दो ध्यान प्रशस्त और शुभ हैं, क्योंकि अप्रशस्त ध्यान दुःख देने वाले तथा प्रशस्त ध्यान मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। आर्त्तध्यान मनुष्य गति का, रौद्रध्यान नरक गति का, धर्मध्यान मनुष्यगति का तथा शुक्लध्यान देवगति का कारण माना गया है । '
आर्त्तध्यान - आर्त्तध्यान उसे कहते हैं जिसमें प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग होने पर चिन्तन की एकाग्र धारा होती है। वेदना में रोग आदि कष्टों में व्याकुल होना और निदान - वैषयिक सुख प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प करना भी आर्त्तध्यान कहलाता है । स्थानांग में भी आर्त्तध्यान के चार लक्षण बताये हैं"
1. आक्रन्दन करना 2. आंसू बहाना 3. शोक करना 4. विलाप करना ।
आर्त्तध्यान राग, द्वेष और मोह से कलुषित प्राणी के होता है। वह अपने द्वारा किए गए भले-बुरे कार्यों की प्रशंसा करता है तथा धन, सम्पत्ति के उपार्जन में उद्यत रहता हुआ विषयात होकर धर्म की उपेक्षा करता है। आर्त्तध्यान संसार रूप वृक्ष का बीज है । तिर्यञ्च गति का मूल कारण है। इस ध्यान के कारण जीव हमेशा भयभीत, शोकाकुल, संशयी, प्रमादी, कलहकारी, विषयी, निद्राशील, शिथिल तथा मूर्च्छा ग्रस्त रहता है।
1. योगप्रदीप 138; 4. ध्यानशतक टीका, 5; 7. झाणज्झयणं 13-14
Jain Education International
-
2. तत्वानुशासन पृ. 61; 5. झाणज्झयणं 6-9;
3. तत्वानुशासन 34 6. ठाणं 4/62
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.