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________________ 172 लेश्या और मनोविज्ञान 4. समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति - जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है उस अवस्था को "समुच्छिन्न क्रिया" कहा जाता है। इसका निवर्तन नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। आगम के उत्तरवर्ती साहित्य में ध्यान चतुष्टय का दूसरा वर्गीकरण भी मिलता है। उसके अनुसार ध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं - 1. पिण्डस्थ 2. पदस्थ 3. रूपस्थ 4. रूपातीत। ये सभी धर्मध्यान के प्रकार हैं। पिण्डस्थ ध्यान में भी शरीर के अवयव-सिर, धू, तालु, ललाट, मुंह, नेत्र, कान, नासाग्र, हृदय और नाभि आदि आलम्बन होते हैं। इसमें धारणाओं का आलम्बन भी लिया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने इसके लिए पांच धारणाओं का उल्लेख किया है' - पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्वरूपवती। पदस्थध्यान में मंत्र पदों का आलम्बन लिया जाता है। रूपस्थ ध्यान में अर्हत् (प्रतिमा) का आलम्बन लिया जाता है। पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ - इन तीनों ध्यानों में आत्मा से भिन्न वस्तुओं - पौद्गलिक द्रव्यों का आलम्बन लिया जाता है। इसलिए ये तीनों सालम्बन ध्यान के प्रकार हैं। रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त-आत्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है। इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता है। यह निरालम्बन ध्यान है। ध्यान की पूर्व तैयारी सभी ध्यान शास्त्रों में ध्यान करने की कुछ मर्यादाओं की चर्चा की है, क्योंकि ध्यान से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि बहुत जरूरी है। जैनाचार्यों ने भी इसी सन्दर्भ में ध्यान संबंधी बारह विषयों पर विचार किया है। 1. भावना 2. प्रदेश 3. काल 4. आसन 5. आलम्बन 6. क्रम 7. ध्येय 8. ध्याता 9. अनुप्रेक्षा 10. लिंग 11. लेश्या 12. फल। भावना - ध्यान की योग्यता उसी को प्राप्त होती है जो पहले भावना का अभ्यास कर लेता है। भावना का अर्थ है - शुभ विचारों से मन को भावित करना। ध्यान शतक में भावना के चार प्रकार बतलाए हैं - 1. ज्ञानभावना 2. दर्शनभावना 3. चारित्रभावना 4. वैराग्य भावना। प्रदेश - ध्यान के लिए एकान्त प्रदेश जरूरी है, क्योंकि भीड़ के बीच मन, इन्द्रियों को स्थिर करना सामान्य व्यक्ति के लिए सहज नहीं होता किन्तु एकान्तवास ही हो, ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा है कि साधना गांव में भी हो सकती है, अरण्य में भी। साधना का भाव न हो तो न गांव में सम्भव है और न अरण्य में। महत्वपूर्ण तथ्य है - व्यक्ति के भीतर ध्यान करने की पूर्ण तैयारी हो। 1. ज्ञानार्णव 36/3; 2. झाणज्झयणं 28-29; 3. झाणज्झयणं 30 4. आचारांग 8/1/14, (अंगसुत्ताणि खण्ड-1, पृ. 58) Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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