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________________ लेश्या और मनोविज्ञान धर्मध्यान चेतना के अनावरण में महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसमें विचय ध्यान की परम्परा कर्मसंस्कारों को परिष्कृत करती है। इससे चेतन मन ही नहीं, अचेतन मन के भी संस्कार मिटते हैं । आज्ञा विचय से वीतरागभाव की प्राप्ति होती है । अपाय विचय से राग-द्वेष, मोह और उनसे उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति मिलती है । 160 विपाक विचय से दुःख कैसे होता है, क्यों होता है, किस प्रवृत्ति का क्या परिणाम होता है ? इनकी जानकारी प्राप्त होती है। संस्थान विचय से मन अनासक्त बनता है । विश्व की उत्पाद, व्यय और ध्रुवता जान ली जाती है। उसके विविध परिणाम/परिवर्तन जान लिए जाते हैं। प्रत्येक वस्तु की क्षणभंगुरता से परिचित होने पर मनुष्य घृणा, शोक आदि विकारों से विरत होता है। धर्मध्यान से प्राणियों का चित्त शुद्ध होता है । लेश्या शुद्ध होती है । अतीन्द्रिय (आत्मिक) सुख की उपलब्धि होती है ।' 1 भाव चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान ने दमन, शमन, उदात्तीकरण और मार्गान्तरीकरण जैसी कई मनोरचनाओं का उल्लेख किया है। बदलाव की प्रक्रिया में लेश्या सिद्धान्त इन सभी विधियों को मान्य करता है। दमन नहीं, शोधन जरूरी व्यक्तित्व बदलाव में दमन नहीं, शोधन की प्रक्रिया आवश्यक है, क्योंकि दमन में स्थिरता नहीं। जिन बुरी आदतों को दबाकर आगे बढ़ते हैं, कुछ समय बाद पुनः वे और अधिक तीव्रता से उभर कर सामने आती हैं। संवेगात्मक व्यक्तित्व कभी दमन से नहीं बदलता । नियंत्रण स्नायविक स्तर पर हो सकता है, पर आत्मशोधन भावात्मक स्तर पर ही मान्य होता है । चित्त का संबंध स्थूल शरीर से है जबकि लेश्या का संबंध भाव से है, क्योंकि जिनके मस्तिष्क, सुषुम्ना नाड़ी संस्थान है, उनके भी लेश्या होती है और जिन जीवों में सिवाय स्पर्शन इन्द्रिय के कुछ भी नहीं, उनके भी होता है। इसलिए लेश्या का सीधा संबंध भाव जगत से जुड़ा है। व्यक्तित्व के तीन पहलू हैं भाव, विचार और व्यवहार । व्यवहार कायिक प्रवृत्ति है । विचार मानसिक प्रवृत्ति है। दोनों स्नायुओं से संबंधित हैं। इसलिए इनका नियंत्रण सम्भव है। मगर भाव लेश्या से जुड़ा है, अतः वहां नियंत्रण नहीं, शोधन जरूरी है। - लेश्या - शोधन की मीमांसा में जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त द्रष्टव्य है । योगजन्य प्रवृत्ति अर्थात् क्रियात्मक आचरण का त्याग किया जा सकता है, पर आन्तरिक दोषों - प्रमाद और कषाय का कभी प्रत्याख्यान नहीं होता। तात्पर्य यह है कि स्नायविक क्रिया तक त्याग और नियंत्रण की बात है, उससे आगे सूक्ष्म जगत में भावों की चिकित्सा लेश्या की विशुद्धता पर आधारित है । 1. सम्बोधि 12/40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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