SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संभव है व्यक्तित्व बदलाव 159 नमि राजर्षि से ब्राह्मण ने कहा - अनेक राजाओं की आपके राज्य पर दृष्टि टिकी है। आप संन्यासी हो जायेंगे तो राज्य की सुरक्षा कौन करेगा? अच्छा हो, आप संन्यासी बनने से पहले शत्रु को युद्ध में पराजित कर दें। राजर्षि ने अध्यात्म की भाषा में कहा - मैं युद्धभूमि में लड़े जाने वाले युद्ध में विश्वास नहीं करता। इस बाहरी युद्ध से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है आत्मा से युद्ध करना, क्योंकि दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतने की अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतना कहीं अधिक बड़ी विजय है। आत्मा यानी इन्द्रियां, मन और कषाय। चार कषाय, पांच इन्द्रियां और एक मन पराजित कर आत्मा को विजित करना ही साधना का सही पथ है।' त्रिसूत्री अभ्यास - भावात्मक विकास के लिए त्रिसूत्री अभ्यास जरूरी है :1. अइयं पडिक्कमामि - अतीत का प्रतिक्रमण 2. पडिपुण्ण संवरेमि - वर्तमान का संवर 3. अणागयं पच्चक्खामि - अनागत का प्रत्याख्यान। साधक अतीत का प्रतिक्रमण करता है यानी कृतभूलों का प्रायश्चित्त करता है। बुरे आचरण से निवृत्त होकर अच्छे आचरण में प्रवृत्त होता है। पीछे मुड़कर देखता है - "किं मे कडं, किंच मे किच्च सेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि। मैंने क्या किया, क्या करणीय शेष है और ऐसा क्या है जो मैं सामर्थ्य होते हुए भी नहीं कर सकता ? इस आत्मदर्शन की प्रक्रिया से मन की पर्ते उतरती हैं। मनोग्रंथियां खुलती हैं। मनुष्य अपने कृतदोषों की आलोचना करता है। मन शिशु-सा निश्छल बन जाता है। आलोचना करते समय यदि साधक अपने आपको बचाव में कहीं छुपा ले तो वह विराधक बन जाता है। अतीत के प्रतिक्रमण के बाद साधक वर्तमान का संवर करता है यानी वर्तमानजीवी बनता है । न अतीत की स्मृति, न भविष्य की कल्पना। जीवन में अप्रमत्तता आती है। वर्तमान में संवर का अर्थ है - असत् संस्कारों को प्रवेश न देना। अनागत के प्रत्याख्यान में साधक संकल्पित होता है कृतदोषों की पुनरावृत्ति न करने के लिए। धर्मध्यान में प्रवेश - लेश्या के माध्यम से हमें यह अवबोध होता है कि आर्त और रौद्रध्यान मानसिक ग्रंथियां बनाने में निमित्त बनते हैं। प्रतिक्षण प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग का चिन्तन रहता है । व्याधिजन्य दुःख और पीड़ा से मुक्ति पाने की तड़प रहती है। भविष्य के कमनीय कामों की पूर्ति का चिन्तन तथा क्रूरता के साथ हिंसा का संकल्प, असत्य-संभाषण, चौर्यवृत्ति, परिग्रह की रक्षा में संलग्न चित्त की वृत्ति व्यक्तित्व को खण्डित कर देती है। लेश्या विशुद्धि होने पर चेतना आर्त और रौद्रध्यान से मुक्त हो धर्म-ध्यान में प्रवेश करती है। 1. उत्तराध्ययन 9/34-36; 2. दसवैकालिक चूलिका 2/12 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy