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________________ 158 लेश्या और मनोविज्ञान अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवर निर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्म स्वाख्याततत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ।' साधक जब अनुप्रेक्षा में उतरता है , तब वह जान लेता है कि हर संयोग-वियोग अनित्य है। ( अनित्य भावना) कोई किसी का त्राण नहीं। (अशरण भावना) जन्म-मृत्यु की परम्परा में कहीं सुख नहीं। (भव भावना) आदमी अकेला जन्मता है, अकेला मरता है। (एकत्व भावना) कोई किसी का साथी नहीं, शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। (अन्यत्व भावना) शरीर अपवित्र है, रोगों का आलय है। इसके प्रति मूर्छा कैसी? (अशुद्धि भावना) मन, वचन और शरीर की चंचलता कर्म संस्कारों का संग्रहण करती है। (आश्रव भावना) संवर द्वारा नए कर्म संस्कारों का अर्जन नहीं होता। (संवर भावना) निर्जरा से भीतर संचित कर्मरजों का शोधन होता है। (निर्जरा भावमा) विविध पर्यायों और परिणामों से भरे संसार के प्रति समत्व भाव जागता है। (लोक भावना) अपने स्वभाव की पहचान होती है। (बोधि दुर्लभ भावना) प्राणी-मात्र के प्रति मैत्री भाव जागते हैं। (मैत्री भावना) गुणवान व्यक्तियों के गुणानुवाद में अनुराग पैदा होता है। (प्रमोद भावना) आर्त जीव दु:ख से मुक्त बनें, यह करुणा विकसित होती है। (कारुण्य भावना) दुश्चेष्टा करने वाले लोगों के प्रति उपेक्षा भाव यानी माध्यस्थ भाव पैदा होता है। (माध्यस्थ भावना) अनुप्रेक्षा में चित्त प्रसन्न होता है। मोह का क्षय होता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि वृत्तियों को स्थैर्य देने के लिए विशिष्ट संस्कार निर्मित होते हैं। भगवान ने जीवन में चार चीजें दुर्लभ बतलाई हैं, उनमें श्रद्धा भी एक है। श्रद्धा परम दुल्लहा - मनुष्य जन्म मिल जाता है, धर्म श्रवण का भी अवसर उपलब्ध हो जाता है। किन्तु धर्म पर श्रद्धा होनी सरल नहीं। जब तक दृष्टिकोण मिथ्या होगा, श्रद्धा दुर्लभ है। साधना के क्षेत्र में श्रद्धा के बिना आत्मविकास सम्भव ही नहीं। अत: दृष्टिकोण का सम्यक् होना, लक्ष्य के प्रति गहरी आस्था जागना आत्मविकास की पहली शर्त है। साधना से पहले मनुष्य निश्चित बदल सकता है। इस बात का दृढ़ विश्वास मन में पैदा हो, तब किया हुआ पुरुषार्थ फलीभूत होता है। आत्मना युद्धस्व - बुरे संस्कारों का परिष्कार करने के लिए व्यक्ति को आत्मयुद्ध में उतरना होता है। भगवान महावीर ने बाहरी युद्ध की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वहां हिंसा है, भय है, परिग्रह है, शोषण है, औरों के अधिकारों का हनन है। ऐसे युद्ध में व्यक्ति विजेता होकर भी हार जाता है। आत्मयुद्ध के लिए उनका प्रखर स्वर गूंजा - जुद्धारिह खलु दुल्लहा। -- 1. तत्वार्थ सूत्र 19/7 2. आयारो 5/46 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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