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संभव है व्यक्तित्व बदलाव
पहले पदार्थों के प्रति आकर्षण जागता है। आकर्षण से प्रेरित मन उन पदार्थों को पाने का प्रयत्न करता है। पाने के बाद उनका संरक्षण, संरक्षित विषयों का उपभोग तथा उपभोग आसक्ति का संस्कार जगाता है । पुनः वह इसी प्राप्ति, संरक्षण और उपभोग के आवर्त में फंस जाता है । इस तरह आयारों में भी इस सत्य का प्रतिपादन इन शब्दों में हुआ है "कडेण मूढ़ो पुणो तं करेई "2 हर एक मूढ़ता दूसरी मूढ़ता को जन्म देती है।
इसी मूढ़ता के आधार पर व्यक्ति शुभ-अशुभ कर्म द्वारा अपना व्यक्तित्व निर्मित करता है । भरत चक्रवर्ती की तरह जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति कम है तो उसके पुण्यकर्म का बंध उसे अशुभ के चक्र में नहीं फंसाता । इसके विपरीत ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की तरह यदि मन की आसक्ति प्रबल है तो उसके द्वारा किया गया पुण्यकर्म का बंध भी उसे अशुभ की ओर ले जाता है। वस्तुतः तीव्र मोह के साथ किया गया अशुभ कर्म व्यक्तित्व को दूषित कर देता है, इसलिए मोह के आवरण का विलय आवश्यक है।
मूर्च्छा का निदान कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में खोजा जा सकता है। कायोत्सर्ग यानी देहासक्ति का टूटना । शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है, इस भेद विज्ञान के द्वारा देहासक्ति टूटती है। मनोविज्ञान कायोत्सर्ग को शिथिलीकरण का नाम देता है। मानसिक और शारीरिक तनावों की मुक्ति के लिये यह कायोत्सर्ग यानी आत्मसूचन का प्रयोग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
कायोत्सर्ग के समय व्यक्ति संकल्पबद्ध होता है। वह कायोत्सर्ग करता है गलत आदतों का उदात्तीकरण करने के लिए, कृतदोषों का प्रायश्चित्त करने के लिए, उनकी विशोधि के लिए, शल्यों को मिटाने के लिए, पापकारी संस्कारों का उन्मूलन करने के लिए। कायोत्सर्ग की साधना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसके बिना मन और इन्द्रियां स्थिर नहीं होतीं । मूर्च्छा के भाव नहीं सिमटते । इन्द्रियप्रतिसंलीनता के बिना आत्मस्वरूपोपलब्धि भी नहीं होती ।
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स्वभाव परिवर्तन में अनुप्रेक्षा का अभ्यास भी महत्त्वपूर्ण है । अनुप्रेक्षा यानी स्वविश्लेषण । इसका दूसरा नाम भावना है। साधना का प्रारम्भिक लक्षण है - गलत संस्कारों शोध और शुभ संस्कारों का निर्माण। जिन संकल्पों द्वारा मानसिक विचारों को भावि किया जाता है उसे भावना कहते हैं ।
चिन्तन कभी बुरा नहीं होता, मगर चिन्तन सही दिशा में होना जरूरी है। धर्मध्यान के समय जब संज्ञाओं से होने वाले दुःखों, उनकी हर पर्यायों का विश्लेषण होता है तो अनुप्रेक्षा दुःखमुक्ति का कारण बनती है। जैन साहित्य में आत्मविशुद्धि के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख है ।
1. उत्तराध्ययन 32/28;
3. उत्तराध्ययन 13वां अध्ययन;
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2. आयारो 2/134
4. आवश्यक सूत्र 5/2, नवसुत्ताणि पृ. 15
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