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संभव है व्यक्तित्व बदलाव
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(निर्जरा) कहा गया है। संवर की साधना में लेश्या प्रतिक्षण प्रशस्त होती है। व्यक्ति अनाश्रव की ओर बढ़ता है। इसी तरह निर्जरा द्वारा लेश्याविशुद्धि होती है । निर्जरा से केवल शरीर ही नहीं, मन, इन्द्रियां कषाय भी तपते हैं।
अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी और रस परित्याग - निर्जरा के इन प्रकारों का हमारे जीवन के साथ गहरा संबंध है। इनके प्रयोग से शरीर में संचित विषैले रसायन (Toxic) खत्म होते हैं। आसन, प्राणायाम, अन्य यौगिक क्रियायें चंचलता के सन्दर्भ में शरीर और मन को साधती हैं। प्रतिसंलीनता में मन और इन्द्रियों का निग्रह होता है। बाह्य तप द्वारा व्यक्ति के भीतर अनेक ऐसे रसायन पैदा होते हैं जिसके द्वारा व्यक्तित्व में निम्न गुणों का प्रकटीकरण होता है :
* सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। * शरीर कृश हो जाता है। * आत्मा संवेग में स्थापित होती है। * इन्द्रिय-दमन होता है। * समाधि योग का स्पर्श होता है।
वीर्यशक्ति का सम्यक् उपयोग होता है।
जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। * संक्लेश-रहित दुःख भावना (कष्ट-सहिष्णुता) का अभ्यास बढ़ता है।
देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। * कषाय का निग्रह होता है। विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन) भाव उत्पन्न होता है। समाधि मरण की ओर गति होती है। आहार के प्रति आसक्ति क्षीण होती है। आहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है। अगृद्धि बढ़ती है। लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है। ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। निद्रा-विजय होती है। ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है।
विमुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है। * , दर्प का नाश होता है। * स्वाध्याय योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है। * सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है।
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