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1. शुभ का विपाक शुभ में 2. अशुभ का विपाक अशुभ में
3. अशुभ का विपाक शुभ में
4. शुभ का विपाक अशुभ में होता है।
इसमें तीसरा और चौथा विकल्प संक्रमण सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है।
कोई व्यक्ति पापकर्म का बंध करता है पर बाद में वह पुरुषार्थ द्वारा इस विपाक को बदल देता है। इसी तरह पुण्य बंध को भी पापकर्म करके पाप में बदल देता है। पुण्य पाप, शुभ अशुभ को बदलने का अर्थ है व्यक्तित्व को बदलना। इस बदलाव की प्रक्रिया में लेश्या महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेश्या विशुद्धि से ही व्यक्ति के बाहरी और भीतरी दोनों व्यक्तित्व रूपान्तरित होते हैं ।
लेश्या और मनोविज्ञान
मनोविज्ञान ने व्यक्तित्व बदलाव की प्रक्रिया में कई विधियों का उल्लेख किया है निर्देशन, सम्मोहन, मनोविश्लेषण, आस्था । इसी तरह जैन- दर्शन की भाषा में इन्हें कायोत्सर्ग, अनुप्रेक्षा / भावना, प्रतिक्रमण और श्रद्धा का नाम दिया जा सकता है।
व्यक्तित्व बदलने का तात्पर्य है भाव बदलना। भावों की चिकित्सा एक कठिन साधना है, क्योंकि प्रतिक्षण बदलती मन की पर्यायों के साथ चिन्तन, व्यवहार, कर्म सभी कुछ बदलता है। इस बदलाव की सूत्रधार है चंचलता और मन की मूर्च्छा । मन, वचन और शरीर रूप तीनों योगों की चंचलता को स्थिरता देने के लिये और मूर्च्छा को मिटाने के लिए जैन साधना पद्धति में ध्यान को एक विशिष्ट साधन माना गया है।
ध्यान रासायनिक प्रक्रिया है । जीवन के दोनों स्तर बाह्य और आभ्यन्तर इससे प्रभावित होते हैं, इसलिए इसके द्वारा व्यक्ति-परिवर्तन संभव है । परिवर्तन की प्रक्रिया में ध्यान साधना से पूर्व कुछेक पड़ाव और भी ग्रहणीय हैं जिनसे गुजरने के बाद मनुष्य पूर्ण तैयारी में होता है ।
मन की चंचलता को, इन्द्रियों की आसक्ति को, कषायों की उत्तप्तता को यकायक नहीं मिटाया जा सकता, इसलिए पृष्ठभूमि पर पहले अशुभ लेश्या को शुभ लेश्या में बदलना जरूरी है। यह आत्मशोधन की प्रक्रिया है। बिना लेश्या बदले जीवन में सत्संस्कार नहीं आते और सत्संस्कारों के बिना व्यक्ति जीवन के सही लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता।
श्या बदलाव की प्रक्रिया में पहले कायोत्सर्ग किया जाये, अनुप्रेक्षा द्वारा शुभ आदतों के निर्माण हेतु मन को संकल्पित किया जाए, मन का विश्लेषण हो कि कहां, कैसे, क्यों मानसिक ग्रंथियां बनी हुई हैं, उनका रेचन किया जाये और फिर लक्ष्य तक पहुंचने के लिए दृढ़ आस्था का सम्बल लिया जाए। तब कहीं ध्यान साधना के लिये हमारे भीतर पात्रता आ पाएगी।
जैन साधना पद्धति में व्यक्तित्व बदलाव का प्रथम चरण है- बुराइयों का प्रवेश बन्द और भीतर जमीं बुराइयों का शोधन हो । सैद्धान्तिक भाषा में इसे संवरयोग और तपोयोग
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