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लेश्या और मनोविज्ञान
द्रव्यलेश्या से सम्बन्धित है । द्रव्यलेश्या की शुभता के आधार पर ही व्यक्तित्व का सौष्ठव निर्धारित होता है।
संहनन का संबंध शरीर-संरचना से, विशेषतः अस्थि जोड़ों की सुदृढ़ता से है, जबकि संस्थान का संबंध शरीर के आकार-प्रकार यानी लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई से है।
संहनन हड्डियों की रचना विशेष को कहा गया है। स्थानांग सूत्र में संहनन के छ: प्रकार बतलाये हैं - 1. वज्रऋषभ नाराच संहनन 2. ऋषभनाराच संहनन 3. अर्धनाराच संहनन 4. नाराच संहनन 5. कीलिका संहनन 6. सेवार्त संहनन।'
देव और नरक गति के जीव वैक्रिय शरीर वाले होने के कारण उनमें हाड़-मांस आदि सप्त धातुएं नहीं होती, अत: वहां अस्थि संरचना का प्रश्न ही नहीं उठता। __ पृथ्वीकाय से लेकर समूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय तक के जीव सेवा संहनन वाले होते हैं । मनुष्य और तिर्यंच गति में उत्पन्न होने वाले जीवों के औदारिक शरीर होता है। औदारिक शरीर हाड़-मांस आदि धातुओं का बना होता है। अत: छह संहनन इसी शरीर में प्राप्त होते हैं।
संस्थान का अर्थ आकृति है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ है - अवयवों की रचना। स्थानांग सूत्र में संस्थान के भी छह प्रकार बतलाए हैं -
1. समचतुरस्त्र 2. न्यग्रोधपरिमण्डल 3. सादि 4. कुब्ज 5. वामन 6. हुण्ड। सात नारकी, पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, असन्नी तिर्यंच और मनुष्य में एक हुण्डक संस्थान होता है। देव, यौगलिक मनुष्य तथा तिरेसठ श्लाकापुरुषों का संस्थान समचतुरस्त्र होता है। संज्ञी मनुष्य और संज्ञी तिर्यञ्च में छह संस्थान संभव हैं।
जैनाचार्यों ने व्यक्तित्व के सन्दर्भ में संस्थान-आकार-प्रकार को आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्त्व नहीं दिया, क्योंकि उनकी दृष्टि में छह संस्थान वाले जीवन-मुक्ति पा सकते हैं, किन्तु उन्होंने संहनन की बात पर विशेष बल दिया। सुदृढ़ शरीर के द्वारा ही साधनाकाल में उपस्थित होने वाले विघ्नों को अविचलित भाव से सहा जा सकता है।
व्यक्ति का संस्थान कैसा भी हो, वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है पर संहनन यानी अस्थिसंरचना की दृष्टि से केवल वज्रऋषभनाराच संहनन वाला जीव ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इस अर्थ में संहनन का महत्व व्यक्तित्व के आत्मिक विकास की दृष्टि से विशेष अर्थ रखता है। प्रथम गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक के आध्यात्मिक विकास का सामर्थ्य सभी प्रकार के संहनन वाले मनुष्यों में होता है। किन्तु इससे आगे क्षायिक श्रेणी में आरोहण करने के लिए वज्रऋषभनाराच संहनन अनिवार्य है। यद्यपि उपशम श्रेणी से आगे बढ़ने वाले जीव प्रथम तीनों संहनन वाले हो सकते हैं पर उनका आध्यात्मिक पतन निश्चित होता है। अत: वज्रऋषभनाराच संहनन उत्तम संहनन माना गया है। द्रव्यलेश्या की विवेचना में संहनन और संस्थान को भी विवेचित किया गया है।
1. ठाणं 6/30;
2. वही, 6/31
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