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व्यक्तित्व और लेश्या
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का वातावरण ही है। वातावरण पौद्गलिक होता है । पुद्गलों का प्रभाव शरीर और मन दोनों पर पड़ता है। प्रत्येक प्राणी भिन्न-भिन्न प्रकार की वर्गणाओं को संग्रहण करता है। वर्गणाओं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श में अनन्त प्रकार का वैचित्र्य और तारतम्यभाव होता है। एक ही रंग, रस, गन्ध स्पर्श दो व्यक्तियों को भिन्न अनुभव देगा। इस प्रकार वातावरण सतत व्यक्ति को प्रभावित करता रहता है और व्यक्ति के भीतर छिपी विशेषताओं को अनावृत्त करने के लिए भी वह एक सशक्त सेतु है। ___बहुत बार देखा गया है कि उचित पर्यावरण/परिवेश के अभाव में व्यक्तित्व का निर्माण गलत संस्कारों से प्रभावित हो जाता है। परिवेश योग्यताओं के प्रकटीकरण की प्रक्रिया है, मगर इसे मूल कारण नहीं माना जा सकता। अनेक बार ऐसा भी देखने में आता है कि उपादान की श्रेष्ठता निमित्तों को अप्रभावी बना देती है। __वंशानुक्रम और परिवेश के आधार पर व्यक्तित्व को समझने का प्रयास समग्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोई भी वंशानुक्रम व्यक्ति के पूर्व चरित्र एवं कर्मों से अप्रभावित नहीं है। उपलब्ध वंशानुक्रम के कारण की व्याख्या में हमारे सामने कर्म सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है। _ विज्ञान की दृष्टि से जीवन का प्रारम्भ माता-पिता के डिम्ब व शुक्राणु के संयोग से होता है किन्तु कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जीव का प्रारम्भ उनसे नहीं होता। मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन
और जीव का भेद अभी स्पष्ट नहीं है। कर्मशास्त्रीय अध्ययन में जीव और जीवन का भेद बहुत स्पष्ट है। इसलिए प्राणिक विलक्षणता के कुछ प्रश्नों का उत्तर जीवन में खोजा जाता है और कुछ प्रश्नों का उत्तर जीव में। आनुवंशिकता का संबंध जीवन से है। कर्म का संबंध जीव से है । एक जीव में अनेक जन्मों से संचित संस्कार होते हैं। अत: वैयक्तिक विलक्षणता का आधार जीवन नहीं, जीव है। शरीर रचना
जैन-दर्शन आत्मा को शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं मानता। संसार दशा में दोनों का परस्पर गहरा संबंध है। आत्मा की परिणति का शरीर पर और शरीर की परिणति का आत्मा पर प्रभाव पड़ता है। चेतना विकास के अनुरूप शरीर की रचना होती है और शरीर रचना के अनुरूप चेतना की प्रवृत्ति होती है। शरीर निर्माण काल में आत्मा उसका निमित्त बनती है और ज्ञानकाल में शरीर के ज्ञानतंतु चेतना के सहायक बनते हैं।
आगम कहता है कि जीव जिस लेश्या के द्रव्य ग्रहण करता है, उसके आत्म परिणाम भी उसी लेश्या के हो जाते हैं । इस तथ्य से व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में एक नई दृष्टि मिलती है। बाह्य शरीर संरचना और उसके द्वारा गृहीत पुद्गलों का भी हमारे भावात्मक स्तर पर प्रभाव पड़ता है। जैन-दर्शन में शरीर-संगठन, आकार-प्रकार को व्यक्तित्व के सन्दर्भ में विशेष महत्त्व दिया गया है। इसके लिए दो शब्द प्रचलित हैं - संहनन, संस्थान।
प्राणी के शरीर की संरचना, रूप-रंग, संगठन शक्ति, स्त्री-पुरुष आदि सभी नाम कर्म के कारण बनते हैं। नाम कर्म का संबंध लेश्या तत्व से भी जुड़ा है। प्राणी का भाव जगत जहां भाव लेश्या से संबंध रखता है, वहां बाहरी जगत यानी शरीर की पौद्गलिक अवस्था
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