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लेश्या और मनोविज्ञान
होते हैं।' आनुवंशिकता के अतिरिक्त दो जुड़वां भाइयों की साम्यता के विषय में जैन-दर्शन जिस एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत करता है, वह है वर्गणाओं का साम्य। वातावरण/परिवेश
वंशानुक्रम और पर्यावरण दोनों मनुष्य के जीवन को अत्यधिक प्रभावित करने वाले तत्त्व हैं। वातावरण के अन्तर्गत वे सारी नैतिक, सामाजिक, शारीरिक तथा बौद्धिक परिस्थितियां आती हैं जो व्यक्ति के जीवन पर अपना प्रभाव डालती हैं। वंशानुक्रम उन सभी गुणों का योग है जिन्हें बालक जन्म से ही लेकर आता है। ये पित्रागत गुण व्यक्ति को कुछ निश्चित विशेषतायें प्रदान करते हैं किन्तु उन्हें परिमार्जित और रूपान्तरित कर एक विशेष एवं उपयुक्त सांचे में ढालना पर्यावरण का ही कार्य है । अत: मात्र वंशानुक्रम व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व नहीं हो सकता, क्योंकि आगम में कहा गया है कि प्राणी जब मां के गर्भ में आता है तब दोनों की लेश्याएं एक जैसी नहीं होतीं। कृष्णलेशी मां के गर्भ में पद्म, तेज, शुक्ललेशी पवित्र आत्मा भी जन्म धारण कर सकती है। संतान पर द्रव्यरूप में शारीरिक दृष्टि से अवश्य मां-बाप का प्रभाव पड़ता है पर भावरूप में उसके शरीर की रचना कर्माश्रित है । नामकर्म के उदयानुसार प्रत्येक प्राणी को शरीर का सौष्ठव, रूप, रंग, स्वर आदि उपलब्ध होते हैं।
मनोविज्ञान की भाषा में कहा गया है कि मनुष्य "क्या कर सकता है" यह आनुवंशिकता से निश्चित होता है और मनुष्य "क्या करता है" यह परिवेश निश्चित करता है। मनुष्य की शक्तियां आनुवंशिकता में होती हैं। इन शक्तियों को बाहर निकालना परिवेश का कार्य है। एक का प्रभाव दूसरे से न्यून या अधिक कहना व्यर्थ है। ___ जैन आगमों ने भी परिवेश को प्रभावक तत्त्व माना है। वह क्षेत्र और काल के नाम से इसे अभिव्यक्त करता है। वह जन्म से पूर्व गर्भकाल में ही इसके प्रभाव को स्वीकार करता है । भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है कि किसी-किसी गर्भगत जीव में वैक्रिय शक्ति होती है। वह शत्रु-सैन्य को देखकर विविध रूप बनाकर उससे लड़ता है। उसमें अर्थ, राज्यभोग और काम की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होती है। कोई-कोई जीव तो धार्मिक रुचि वाला होने से प्रवचन सुनकर ही विरक्त हो जाता है।' ___ बहुत-सी पुद्गल वर्गणाएं क्षेत्र विपाकी होती हैं। इसलिए कर्मफल का विपाक वातावरण के अनुसार होता है। प्रज्ञापना में लिखा है कि नारकीय जीवों के दर्शनावरणीय कर्म का उदय है, इसलिए उन्हें नींद आनी चाहिए। पर ऐसा होता नहीं है, क्योंकि वहां के पुद्गल इतने सघन और पीड़क हैं कि नींद लेने योग्य वातावरण ही निर्मित नहीं हो पाता। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि यदि वातावरण शांत है तो तनाव से ग्रस्त, बुझा-बुझा मन वाला भी वहां आकर प्रसन्न और स्वस्थ हो जाता है। तीर्थंकरों के समवसरण में जन्मजात विरोधी पशु-पक्षी भी एक साथ प्रवचन सुनते हैं। उनकी मनोवृत्ति के बदलाव का मुख्य हेतु वहां
1. भगवती 1/350, 351;
2. प्रज्ञापना 17/6/67;
3. भगवती 1/356
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