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________________ 116 लेश्या और मनोविज्ञान गणधर गौतम की जिज्ञासा पर तेजोलब्धि की प्राप्ति का क्रम बतलाते हुए भगवान महावीर ने कहा - जो साधक छह माह तक बेले-बेले तप (दो दिन का उपवास) करता है। पारणे के दिन मुट्ठी भर उड़द के बाकले एवं चुल्लू भर पानी का आसेवन करता है। प्रतिदिन सूर्य सम्मुख हाथ ऊपर कर आतापना लेता है, उसे संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या की प्राप्ति होती है। निग्रहशील शीतोष्ण तेजोलेश्या ज्वाला - दाह पैदा करती है। आज के अणुबम की तरह इसमें अंग-बंग इत्यादि सोलह जनपदों का घात, बध, उच्छेद तथा भस्म करने की शक्ति होती है। शीतल तेजोलेश्या में उष्ण तेजोलेश्या से उत्पन्न ज्वाला दाह को प्रशान्त करने की क्षमता होती है। वैश्यायन बाल तपस्वी ने गोशालक को भस्म करने के लिये उष्ण तेजोलेश्या फेंकी। मोहानुकंपावश उसे बचाने के लिए भगवान महावीर ने शीतल तेजोलेश्या का प्रयोग किया। गोशालक भस्म होते-होते बच गया निक्षिप्त तेजोलेश्या का प्रत्याहार भी किया जा सकता है। सामान्यतः तेजोलेश्या संक्षिप्त और प्रयोगकाल में विस्तृत होती जाती है। यह विपुल अवस्था में सूर्य बिम्ब के समान दुर्घर्ष होती है।' तेजोलेश्या जब अपने से लब्धि में अधिक बलशाली पुरुष पर निक्षेप की जाती है तो वह निर्वीर्य होकर वहां से लौट आती है और प्रयोक्ता को भस्म कर सकती है। मनुष्य की तरह देवताओं में होने वाली तेजोलेश्या भी प्रखर, दाहक और ताप वाली होती है । भगवती सूत्र के तीसरे शतक में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि जब ईशान देवेन्द्र ने असुरों की राजधानी बलिचंचा की तरफ कुपित दृष्टि से देखा तो उसके दिव्य प्रभाव से वह राजधानी तप्त ललाट की भांति जलने लगी। असुरों ने अपने ज्ञानबल से जाना कि ईशान देवेन्द्र कुपित हो गए हैं। वे दिव्यतेजोलेश्या सह नहीं सके। उन्होंने करबद्ध क्षमायाचना की। ईशानेन्द्र ने प्रसन्न हो पुनः निक्षिप्त तेजोलेश्या को वापिस खींच लिया। तब असुरों को राहत मिली। साधना द्वारा तेजोलेश्या को प्राप्त करने वाला सहज आनन्द को उपलब्ध होता है। इस अवस्था में विषय-वासना और आकांक्षा सहज निवृत्त हो जाती है। इसीलिए इस अवस्था को सुखासिका (सुख में रहना) कहा जाता है। आभामण्डल की संरचना के सन्दर्भ में जैन सिद्धान्त के अनुसार आभामण्डल की अवधारणा दो रूपों में की जा सकती है - 1. कषायात्मक 2. योगात्मक। कषाय आभामण्डल मनुष्य के भीतर सूक्ष्म शरीर से जुड़ा है। वहां क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मूर्छा के तीव्र अध्यवसाय सतत प्रकम्पित होते रहते हैं। योगात्मक आभामण्डल मन, वचन और शरीर द्वारा निर्मित पुद्गलात्मक प्रवृत्तिजन्य स्थूल शरीर से संबंधित है। कषाय और योग दोनों का लेश्या के साथ जब सम्पर्क होता है तो आभामण्डल हमारे चरित्र को 1. भगवती 15/70, पृ. 668; 2. भगवती 15/64-66, पृ. 667 3. वही 15/69, वृत्ति पत्र 668; 4. ठाणं 3/386, वृत्तिपत्र 139 5. भगवती 3/50-51, पृ. 137-38 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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