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लेश्या और आभामण्डल
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जान सकता है जब व्यक्ति का चरित्र अस्त-व्यस्त न हो। इतना धुंधला न हो कि उसके रंगों का पता भी न चले।
इस एस्ट्रल प्रोजेक्शन की प्रक्रिया को जैन परम्परा में समुद्घात-प्रक्रिया कह सकते हैं। तैजस समुद्घात का अर्थ भी यही है कि जब विशेष घटना घटित होने वाली होती है, तब व्यक्ति स्थूल शरीर से प्राणशरीर को बाहर निकालकर घटना तक पहुंचता है और घटना का ज्ञान कर लेता है। यह प्राण शरीर बहुत दूर तक जा सकता है। इसमें अपूर्व क्षमताएँ हैं । आगम साहित्य में सात प्रकार के समुद्घात का उल्लेख है - वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और केवली समुद्घात।'
तेजोलब्धि - प्रज्ञापना सूत्र में लिखा है कि तेजोलब्धि सम्पन्न व्यक्ति ही तैजस समुद्घात करने में समर्थ होता है । तैजस समुद्घात करते समय तेजोलेश्या (तैजस शक्ति) निकलती है। तैजस शक्ति के दो कार्य हैं - अनुग्रह और शाप। अनुग्रहशील तेजोलेश्या जब बाहर निकलती है, तब उसका वर्ण हंस की भांति सफेद होता है। वह तपस्वी के दायें कन्धे से निकलती है। उसकी आकृति सौम्य होती है। वह लक्ष्य को साधकर फिर अपने मूल शरीर में आ जाती है। निग्रहशील तेजोलेश्या जब बाहर निकलती है तब उसका वर्ण सिन्दूर जैसा लाल होता है । वह तपस्वी के बायें कन्धे से निकलती है। उसकी आकृति रौद्र होती है। वह लक्ष्य को साधकर फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट होती है।
शीतल लेश्या उष्ण लेश्या को प्रतिहत करने की शक्ति रखती है। तैजस शक्ति के विकास होने पर केश और नख नहीं बढ़ते। शरीर का रासायनिक परिवर्तन नहीं होता। तीर्थंकरों की अतिशय गाथाओं में यह वर्णन मिलता है कि उनके केश और नख नहीं बढ़ते। वे आधि-व्याधि से मुक्त होते हैं।
तेजोलब्धि संग्रहीत ऊर्जा की अभिव्यक्ति है। तेजोलब्धि जिसके पास होती है, वह उसका उपयोग निर्माण और ध्वंस दोनों कामों में कर सकता है। एक दृष्टि से देखा जाए तो वरदान-शाप ये सब ऊर्जा या विद्युत के परिणाम हैं । विद्युत के बिना कुछ भी नहीं होता। जैसे विद्युत अपना चुम्बकीय स्थान बनाती है, वैसे ही तेजोलेश्या भी अपना चुम्बकीय स्थान बनाती है। उसकी विद्युत धारा व्यक्ति के व्यक्तित्व को निर्मित होने में सहयोग देती है तथा अन्य उपलब्धियों के प्राप्त होने में भी निमित्त बनती है।
स्थानांग सूत्र में तेजोलब्धि की प्राप्ति के प्रमुख तीन साधन बतलाए गए हैं : 1. आतापना, 2. सहिष्णुता 3. निर्जल तपस्या । आतापना एक प्रकार से सौर ऊर्जा प्राप्ति का ही उपक्रम है।
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1. ठाणं 7/138; । 2. वृहद्रव्यसंग्रह 1/10, टीका पृ. 21 3. ठाणं 3/182
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