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लेश्या और मनोविज्ञान
अर्थ प्रकट करती है। नन्दीचूर्णि में लेश्या शब्द की व्युत्पत्ति बतलाते समय रस्सी शब्द का प्रयोग किया गया है। रस्सी यानि रश्मि। लेश्या का एक अर्थ है विद्युत विकिरण। इस विकिरण का मूल स्रोत है तैजस शरीर। तैजस शरीर, तैजस समुद्घात और तेजोलब्धि
लेश्या और आभामण्डल का अध्ययन करते समय तैजस शरीर को समझना बहुत जरूरी है। यह हमारे पाचन, सक्रियता, दीप्ति और तेजस्विता का मूल है। यह पूरे स्थूल शरीर में व्याप्त रहता है। इस शरीर का प्रेरक तत्त्व है - अतिसूक्ष्म कर्मशरीर। हमारे अर्जित कर्म संस्कारों के अनुरूप तैजस शरीर स्पन्दित होता है। प्राणधारा विकिरित करता है और यही आभामण्डल का निर्माण करता है।
जैन आगमों में तैजस शरीर के साथ तेजोलेश्या, तेजोलब्धि और तैजस समुद्घात जैसे महत्त्वपूर्ण शब्द विशेष अर्थों में जुड़े हुए हैं। तेजोलेश्या ऊर्जा का अखण्ड भण्डार है। जैन आगमों में तेजोलेश्या की उन्हीं अर्थों में पहचान है, जिन अर्थों में हठयोग में कुण्डलिनी की। ___ कुण्डलिनी शब्द का यद्यपि जैन आगमों में उल्लेख नहीं है पर उत्तरवर्ती साहित्य में तेजोलेश्या को जिस रूप में व्याख्यायित किया गया है, उसे कुण्डलिनी के नाम से अभिहित किया जा सकता है। सभी साधना पद्धतियों में कुण्डलिनी की उपयोगिता स्वीकृत है। हमारे शरीर में मूलाधार चक्र के पास ऊर्जा का स्थान है। इसी स्थान को कुण्डलिनी का स्थान माना गया है। जैन आगम की भाषा में अग्नि ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पुद्गलों के योग से होने वाली चैतन्य की परिणति को तेजोलेश्या कहा गया है।
तैजस शरीर - यह सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित होने के कारण चर्मचक्षु से दृश्यमान नहीं होता। यह स्वाभाविक भी होता है और तपस्या द्वारा उपलब्ध भी होता है । तप द्वारा उपलब्ध तैजस शरीर ही तेजोलेश्या है। इसे तेजोलब्धि भी कहते हैं।
. स्वाभाविक तैजस शरीर सभी में होता है किन्तु तपोलब्ध तैजस शरीर सबमें नहीं होता। यह तपस्या द्वारा प्राप्त होता है । तपोजनित तैजस शरीर में अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है। उसके बाहर निकलने की प्रक्रिया को तैजस समुद्घात कहते हैं। सामान्य शरीर में वह शक्ति नहीं होती।
तैजस समुद्घात - परामनोविज्ञान के क्षेत्र में सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालने के कई उदाहरण मिलते हैं । अतीन्द्रिय प्रयोगों में एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा घटनाओं को जाना जाता है। प्रत्येक प्राणी में प्राणधारा होती है जिसे एस्ट्रल बॉडी भी कहा जाता है। एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा प्राण शरीर से बाहर निकलकर जहाँ घटना घटित होती है, वहाँ की सारी बातें जानी जा सकती हैं। इस प्रक्रिया में व्यक्ति आभामण्डल में प्रविष्ट होकर तभी यथार्थ चरित्र को
1. नन्दीचूर्णि, गाथा 4; 3. सभाष्य तत्वार्थ 2/49;
2. ठाणं 1/194 वृत्ति पत्र 29 4. वही, 2/43
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