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चतुर्थ अध्याय लेश्या और आभामण्डल
जैन तत्त्व चिन्तन में आभामण्डल की चर्चा लेश्या के सन्दर्भ में सूक्ष्म शरीर के साथ की जा सकती है। इसकी मान्यतानुसार प्रत्येक प्राणी में दो शरीर होते हैं - स्थूल और सूक्ष्म । औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर स्थूल है। तैजस व कार्मण शरीर सूक्ष्म है । औदारिक शरीर रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि से बना होता है। वैक्रिय और आहारक शरीर के पुद्गल औदारिक शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म होते हैं। पर ये प्रत्येक को उपलब्ध नहीं होते । सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म परमाणुओं की संघटना है। प्रस्तुत सन्दर्भ में तैजस और कार्मण शरीर विवेच्य है ।
प्राणी की प्राण शक्ति का मूलस्रोत सूक्ष्म तैजस शरीर है। इसे जैन सिद्धान्त में उल्लिखित दस प्राणशक्तियों (श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, शरीरबल, श्वासोच्छवास और आयुष्य) का संचालक सूत्र माना गया है। लेश्या सिद्धान्त के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि पौद्गलिक लेश्या या आभामण्डल तैजस शरीर से निष्पन्न होता है जो प्राणी के जन्म के साथ बनता है और जीवन के अन्त तक रहता है।
जैन तत्त्व मीमांसा में चेतन और पुद्गल दो तत्त्व विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । प्राणी न शुद्ध अर्थ में चेतन है और न शुद्ध अर्थ में पुद्गल । वह दोनों का संयोग है । प्राणी के सन्दर्भ में आभामण्डल चेतना और शरीर दोनों की परिणति का प्रतिबिम्ब है ।
आभामण्डल की अवधारणा बहुत पुरानी है । रहस्यवादी और मनोवैज्ञानिक इस बात को मानते रहे हैं कि मानव शरीर को घेरे हुए ऊर्जा का वलय यानी आभामण्डल जो कि अण्डाकार बादल के रूप में विभिन्न रंगों में होता है। यह व्यक्ति के मनोदशा व भावात्मक सन्तुलन के साथ-साथ परिवर्तित होता है ।
जैन आगमों में आभामण्डल जैसा शब्द प्रयोग उपलब्ध नहीं होता किन्तु लेश्या शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग हुआ है, उससे यह विज्ञान सम्मत बात लगती है कि शरीर विद्युत का भण्डार है। इससे प्रतिक्षण विद्युत विकिरित हो रही । विकिरित होने वाले पुद्गलों का अपना एक संस्थान बनता है जिसे हम आभामण्डल कहते हैं ।
लेश्या शब्द का अर्थ तेज, दीप्ति, ज्योति, किरण - मण्डल, बिम्ब, देह, सौन्दर्य, ज्वाला, सुख व वर्ण किया गया है। इन शब्दों की अर्थात्मा लेश्या के सन्दर्भ में आभामण्डल का
1. लेश्याकोश, पृष्ठ 3
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