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रंगों की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति
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जैन साहित्य में चौबीस तीर्थंकरों के भिन्न-भिन्न रंग बतलाए गए हैं। पद्मप्रभ और वासुपूज्य का रंग लाल, चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त का सफेद, मुनि सुव्रत और अरिष्टनेमि का रंग कृष्ण, मल्लि और पार्श्व का रंग नील और शेष सोलह तीर्थंकरों का रंग सुनहला था।
जैन साहित्य में लेश्या रंगों के साथ मनुष्य के चरित्र की व्याख्या इस बात की सूचक है कि यदि रंग अच्छे नहीं हैं और लेश्या शुभ नहीं है तो व्यक्तित्व का स्वरूप भी अच्छा नहीं होगा। रंग और भाव के साथ व्यक्ति का गुणात्मक पक्ष जुड़ा है।
प्राचीन धर्म, दर्शन, साहित्य में रंगों का प्रतीकवाद इस बात की सूचना देता है कि रंग सृष्टि की आत्मा है और इसका विकास आदिकाल से मान्य रहा है। सभ्यता और संस्कृति के साथ रंगों के प्रतीक मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन दर्शन की व्याख्या करते हैं। इन्हीं प्रतीकों में सृष्टि के मनोवैज्ञानिक तथ्यों का रहस्य छिपा है। __ रंग और भाव का आपसी संबंध व्यक्तित्व के बाहरी-भीतरी दोनों पक्षों से जुड़ा है। शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक स्वस्थता के सन्दर्भ में भी लेश्या एक चिकित्सा की भूमिका निभा सकती है। व्यक्ति आधि-व्याधि, उपाधि से मुक्त होकर समाधि तक पहुंच सकता है। रंग चिकित्सा
विभिन्न प्रकाश-किरणों के प्रयोग से मन और शरीर की अस्वस्थ अवस्था का उपचार करने का नाम रंग चिकित्सा है। जीवन स्वयं में रंग है। सातों दृश्य और अदृश्य रंगों का सन्तुलन बनाए रखने के लिए उनका लयबद्ध प्रकम्पित होना जरूरी है। इस लयबद्ध सन्तुलन में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी रोग का कारण बनती है। यह रोग भौतिक, मानसिक व आध्यात्मिक किसी भी स्तर पर हो सकता है। इस विषय में प्राचीन व आधुनिक दोनों विज्ञानों में काफी गवेषणा हुई है। __ अनेक प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात किया जा चुका है कि विभिन्न रंगों का व्यक्ति के रक्तचाप, नाड़ी गति, श्वसन क्रिया, मस्तिष्क के क्रियाकलाप तथा अन्य जैविक क्रियाओं पर विभिन्न प्रभाव पड़ता है। आज अनेक प्रकार की बीमारियों की चिकित्सा में विभिन्न रंगों का उपयोग किया जाने लगा है।
जब शरीर सामान्य व स्वस्थ स्थिति में होता है तब सूर्य के प्रकाश में से वह स्वत: अनुकूल प्रकम्पनों को ग्रहण कर लेता है परन्तु असामान्यता व अस्वस्थता की स्थिति में उसे आवश्यक रंग की पूर्ति बाहर से करनी पड़ती है।
रंग चिकित्सा पद्धति का प्रयोग प्राचीन मिस्रवासियों ने किया। ज्ञात होता है कि उनसे भी पहले रंग-चिकित्सा के मनोवैज्ञानिक तौर-तरीकों के आधार पर मनुष्य की चिकित्सा की जाती रही है। मिस्र के मन्दिरों में पुरातत्त्ववेत्ताओं को कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे
1. अभिधान चिन्तामणि, 1/49 2. देखें - लेश्या और आभामण्डल अध्याय में
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