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रंगों की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति
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शास्त्रों में शिव को सत्यं-शिवं-सुन्दरं का प्रतीक मानकर सफेद रंग में इसलिए अभिव्यक्ति दी कि शिव के मस्तक पर अर्ध चन्द्राकार चांद की धवलिमा अध्यात्म आनन्द और अनुग्रह की अर्थवत्ता लिए हुए है। ब्रह्मा के सन्दर्भ में भी उल्लेख मिलता है कि उनके दायीं ओर सरस्वती श्वेत परिधान में अधिष्ठित है जो ज्ञान और विद्या की प्रतीक है । बायीं ओर सावित्री पीले या चमकदार नीले वस्त्रों में स्थित है जो विकास और समृद्धि का अर्थ लिए हुए है। पौराणिक भाषा में कहा जाए तो ब्रह्मा से बढ़कर कौन बड़ा ज्ञानी होगा, अतः ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता कहने में सृष्टि की कामजा शक्ति और उस पर ज्ञान द्वारा नियन्त्रण तथा विकास की सन्तुलन शक्ति प्रकट की गई है।
मानसार शिल्पशास्त्र में सप्तर्षि को रंगों में दर्शाया गया - 1. अगस्त्य - चमकदार हरा, 2. काश्यप - पीला, 3. भृगु - अन्धकारमय, 4. वशिष्ठ - लाल, 5. भार्गव - भूरा, 6. विश्वामित्र - लाल, 7. भारद्वाज - हरा।'
भारतीय दर्शन साहित्य में सृष्टि के रहस्यात्मक पहलू के साथ-साथ रंगों की चर्चा अपना विशेष अर्थ रखती है। वैदिक मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि पंच तत्वों से बनी है और इन तत्त्वों का प्राणी पर प्रभाव पड़ता है। इन तत्त्वों के रंगों का शिव स्वरोदय में उल्लेख मिलता है । जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश का वर्ण क्रमशः श्वेत, पीला', लाल, नीला और सर्ववर्णक है।'
सांख्य दर्शन में सृष्टि की सार्वभौमिक सत्ता के रूप में प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना गया है। सत्व, रजस्, तमस गुणों के आधार पर सम्पूर्ण जगत् की रचना, संरक्षण और प्रलय होता रहता है। तीन गुणों के भी अपने रंग हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी त्रिगुणात्मक प्रकृति को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है। साख्य दर्शन इसका कारण बताते हुए कहता है कि सत्वगुण निर्मल और प्रकाशक है इसीलिए सफेद है। रजस् गुण रागात्मक, सक्रिय, चंचल है इसलिए लाल है। तमोगुण अज्ञानरूप तथा आवरक है इसलिये काला है। ___ आयुर्वेद शास्त्र में इन्हीं तीन गुणों के साथ तीन दोषों वायु, पित्त, कफ की व्याख्या की गई है। वहां मनुष्य शरीर के दोषों और प्रकृति के पंच तत्वों का सह-संबंध भी स्थापित किया गया है। पंच तत्त्वों और त्रिगुणों के साथ रंगों को जोड़ने की अवधारणा त्रिदोषों की गुणात्मकता पर प्रकाश डालती है।
1. मानसार, p. LVI, 7-10; 3. श्वेताश्वतर उपनिषद् 4/5;
2. शिव स्वरोदय, भाषा टीका, श्लोक 156, पृ. 42 4. सांख्य कौमुदी, पृ. 200
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