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________________ 96 लेश्या और मनोविज्ञान __ आगम की भाषा में लेश्या के साथ इन तीनों बिन्दुओं की सादृश्यता देखी जा सकती है। सातवीं नारकी का कालमान छठी नारकी की अपेक्षा ज्यादा है। सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा छठे देवलोक का कालमान बहुत कम है। दूसरे शब्दों में नारकी और देवताओं का उत्कृष्ट समय बहुत ज्यादा होते हुए भी नारकी में वही समय जीव को ज्यादा लम्बा लगता है जबकि देवताओं का पलक झपकते ही समय गुजर जाता है। लेश्या का एक गुण गुरुलघु कहा गया है। भगवती सूत्र के अनुसार गुरुलघु का अर्थ है - अठारह पापों में प्रवृत्त जीव गुरु और अठारह पापों से निवृत्त जीव लघु कहलाता है। कृष्णलेश्या का जीव पापों में निरत होने से गुरु और शुक्ललेश्या का जीव पापों से विरत होने के कारण लघु कहलाता है । वस्तु का गुरुत्व व्यक्ति को नीचे ले जाता है जबकि लघुत्व ऊपर की ओर खींचता है। ___अशुभ लेश्या का विचार भारी होने के कारण जीव को नीचे की ओर तथा शुभलेश्या का विचार ऊपर की ओर खींचता है। जैन-दर्शन का मानना है कि सातवीं नारकी सबसे नीचे है, जहां परमकृष्ण लेश्या मिलती है। इससे ऊपर छट्ठी में कृष्णलेश्या, पांचवीं में कृष्णनील, चौथी में नील, तीसरी में नील और कापोत, दूसरी तथा पहली में कापोतलेश्या पाई जाती है। दूसरी ओर पहले-दूसरे में उत्तम तेजोलेश्या, तीसरे, चौथे-पांचवें में पद्मलेश्या, छ8 से नव ग्रैवेयक तक शुक्ल, इनसे ऊपर पांच अनुत्तर विमान में अधिक निर्मल शुक्ल लेश्या पाई जाती है। लेश्या और ऐन्द्रियक विषय विज्ञान ने ऐन्द्रियक विषयों का रंग के साथ संबंध स्थापित कर मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर प्रकाश डाला है। मनुष्य की संवेगात्मक एकरूपता ध्वनि, आकार, रूप, गंध, स्वाद और स्पर्श के साथ देखी जा सकती है। "इन्द्रियों की एकता" यह कथन इस बात को सिद्ध करता है कि रंग को देखा, सुना, सूंघा, चखा और छुआ भी जा सकता है। रंग संवेदन मनुष्य की मन की रचना का एक आवश्यक अंग है। रंग को स्पेक्ट्रम के माध्यम से देखा जा सकता है । दृष्टि की संवेदना आंख के माध्यम से होती है। इनकी उत्तेजनाएं प्रकाश की तरंगें हैं। रंग संवेदनाओं में मौलिक चार रंग हैं - लाल, पीला, हरा और नीला। वर्णान्ध व्यक्ति रंग नहीं देख सकता, क्योंकि चक्षु द्वारा वर्ण की पहचान होती है। 1. भगवती सूत्र 1/384 (अंगसुत्ताणि, भा. 2, पृ. 65) 2. भगवती 1/244 संग्रहणी गाथा, पृ. 44 3. प्रज्ञापनामलयवृत्ति, पत्रांक 344 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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