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________________ लेश्या और मनोविज्ञान लाल जपापुष्प, किंशुक (टेसू) के फूल समूह, लाल कमल, लाल अशोक, लाल कनेर, बन्धुजीवक से भी ज्यादा रक्तवर्णवाली तेजोलेश्या होती है । 94 पद्म लेश्या का वर्ण पीला होता है। यह पीलापन चम्पा, चम्पक की छाल, चम्पक का टुकड़ा, हल्दी, हल्दी की गुटिका, हस्ताल, हरताल की गुटिका, हरताल का टुकड़ा, चिकुर नामक पीत वस्तु, चिकुर का रंग, स्वर्ण की सीप, उत्तम स्वर्ण- निकष, श्रेष्ठ पुरुष (वासुदेव) का वसन, अल्लकी का फूल, चम्पा का फूल, कनेर का फूल, कूष्माण्ड (कोले) की लता का पुष्प, कुसुम, सुवर्णजूही, सुहिरिण्य का कुसुम, कोरंट के फूलों की माला,' पीत अशोक, पीत कनेर, पीत बन्धुजीवक से भी ज्यादा पीत रंग वाला होता है। शुक्ल लेश्या का श्वेत वर्ण होता है। यह श्वेतता अंकरत्न, शंख, चन्द्रमा, कुंद (पुष्प), जल, जल की बूंद, दही, दहीपिण्ड, दूध, दूध का उफान, शुष्कफली, मयूरपिच्छ की मिंजी, अग्नि में तपा शुद्ध रजत पट्ट, शरद ऋतु का बादल, कुमुद का पत्र, पुण्डरीक कमल का पत्र, चावलों के आटे का पिण्ड, कुटज पुष्पराशि, सिन्धुवार के श्रेष्ठ फूलों की माला, , श्वेत अशोक, श्वेत कनेर, श्वेत बन्धुजीवक से भी ज्यादा श्वेतवर्ण वाली होती है ।' वर्णप्रधान वस्तुओं के आधार पर दी गई उपमापरक आगम प्ररूपणा वस्तुत: लेश्या की सही पहचान का सूक्ष्म विश्लेषण करती है। यह व्याख्या रंग के विविध स्तरों की सूचक है। मन के साथ जुड़ने पर एक ही वर्ण का कौनसा रंग कितना प्रिय-अप्रिय अनुभव होता है, यह हमारी मानसिक संवेदना पर निर्भर करता है । 1 आगमों में लेश्या के अनेक स्थान/भेद यानी छवियों का उल्लेख इसी बात का प्रतिपादन करता है कि एक ही रंग की अनेक छाया होती हैं और उनमें तारतम्यता होती है। एक ही लेश्या के आत्मपरिणाम में तारतम्यता देखी जा सकती है। चौथे गुणस्थानवर्ती जीवों में शुक्ल लेश्या पाई जाती है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग में भी शुक्ल लेश्या होती है । किन्तु आत्म-परिणामों की पवित्रता में बहुत अन्तर आ जाता है। इसलिये कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के असंख्यात स्थान / भेद कहे गए हैं। । असंख्यात कालमान को समझाने के लिए सूत्रों में उल्लेख मिलता है कि असंख्यात अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी में जितने समय होते हैं और असंख्यात लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं, उतने लेश्या के स्थान/स्तर/छवियां होती हैं। यह वर्णन भावलेश्या के सन्दर्भ में किया जाता है । द्रव्यलेश्या के सन्दर्भ में लेश्या के असंख्यात भेद पुद्गल की मनोज्ञता / अमनोज्ञता, दुर्गन्धता/ सुगन्धता, विशुद्धता / अविशुद्धता, शीतरुक्षता / उष्ण-स्निग्धता की हीनाधिकता के आधार पर कहे गए हैं। 1. प्रज्ञापना सूत्र, पद- 17, सूत्र 123-28, उवंगसुत्ताणि खण्ड-2, पृ. 230-31 2. उत्तराध्ययन 34/33; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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