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________________ कहीं वंदना और कहीं बंदी / ७५ उनसे परिचय मांगा। उन्होंने वह दिया नहीं। उन्हें बन्दी बनाकर राजा जितशत्रु के पास भेजा गया। नैमित्तिक उत्पल अस्थिकग्राम से वहां आया हुआ था। वह राज्य-सभा में उपस्थित था। वह भगवान् को बन्दी के रूप में देख स्तब्ध रह गया। वह भावावेश की मुद्रा में बोला, 'यह कैसा अन्याय! राजा ने पूछा 'उत्पल! राज्य अधिकारियों के कार्य में हस्तक्षेप करना भी क्या कोई निमित्तशास्त्र का विधान है?' 'यह हस्तक्षेप नहीं है, महाराज! यह अधिकारियों का अविवेक है।' 'यह क्या कह रहे हो, उत्पल? आज तुम्हें क्या हो गया?' 'कुछ नहीं हुआ, महाराज! मेरा सिर लाज से झुक गया है?' 'क्यों?' 'क्या आप नहीं देख रहे हैं, आपके सामने कौन खड़े हैं?' 'बन्दी हैं, मैं देख रहा हूं।' 'ये बन्दी नहीं हैं । ये मुक्ति के महान् साधक भगवान् महावीर हैं।' महावीर का नाम सुनते ही राजा सहम गया। वह जल्दी से उठा और उसने भगवान् के बन्धन खोल दिए और अपने अधिकारियों की भूल के लिए क्षमा मांगी। भगवान् बन्दी बनने के समय भी मौन थे और अब मुक्ति के समय भी मौन।' उनका चित्त मुक्ति का द्वार खोल चुका था, इसलिए वह शरीर के बन्दी होने पर रोष का अनुभव नहीं कर रहा था और मुक्त होने पर हर्ष की हिलोरें नहीं ले रहा था। बेचारे बन्दी को बन्दी बनाने का यह अभिनव प्रयोग चल रहा था। ८. इस दुनिया में जो घटित होता है, वह सब सकारण ही नहीं होता। कुछ-कुछ निष्कारण भी होता है। हिरण घास खाकर जीता है, फिर भी शिकारी उसके पीछे पड़े हैं। मछली पानी में तृप्त है, फिर भी मच्छीगर उसे जीने नहीं देते। सज्जन अपने आप में सन्तुष्ट है, फिर भी पिशुन उसे आराम की नींद नहीं लेने देते। भगवान् तोसली गांव के उद्यान में ध्यान कर खड़े थे। संगमदेव उनके कार्य में विघ्न उत्पन्न कर रहा था। वह साधु का वेश बना गांव में गया और सेंध लगाने लगा। लोग उसे पकड़कर पीटने लगे। तब वह बोला, 'आप मुझे क्यों पीटते हैं?' __'सेंध तुम लगा रहे हो, तब किसी दूसरे को क्यों पीटें?' 'मैं अपनी इच्छा से चोरी करने नहीं आया हूं। मेरे गुरु ने मुझे भेजा है, इसलिए आया हूं।' 'कहां है तुम्हारे गुरु?' १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९४ । २. साधना का ग्यारहवां वर्ष। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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