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७४/ श्रमण महावीर
परिचय के प्रसंग में वे अपना परिचय देकर, जिस दिशा से आई थीं, उसी दिशा की .ओर चली गयीं। भगवान् अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ गए।१ ।।
५. मेघ और कालहस्ती दोनों भाई थे। कलंबुका उनके अधिकार में था। ये सीमांतवासी थे।
एक बार कालहस्ती कुछ चोरों को साथ ले चोरी करने जा रहा था। भगवान् चोराक सन्निवेश से प्रस्थान कर कलंबुका की ओर जा रहे थे। गोशालक उनके साथ था।
कालहस्त ने भगवान् का परिचय पूछा। भगवान् नहीं बोले । उसने फिर पूछा, भगवान् फिर मौन रहे। गोशालक भी मौन रहा । कालहस्ती उत्तेजित हो उठा। उसने अपने साथियों से कहा, इन्हें बांधकर कलंबुका ले जाओ और मेघ के सामने उपस्थित कर दो।'
मेघ अपने वासकक्ष में बैठा था। उसके सेवक दोनों तपस्वियों को साथ लिये वहां पहुंचे। उसने भगवान् को पहचान लिया और मुक्त कर दिया।
भगवान् को बन्दी बनाने का जो सिलसिला चला उसके पीछे सामयिक परिस्थितियों का एक चक्र है। उस समय छोटे-छोटे राज्य थे। वे एक-दूसरे को अपने अधिकार में लेने के लिए लालायित रहते थे। गुप्तचर विभिन्न वेशों में इधर-उधर घूमते थे। इसीलिए हर राज्य के आरक्षिक बहुत सतर्क रहते । वे किसी भी अपरिचित व्यक्ति को अपने राज्य की सीमा में नहीं घुसने देते।
६. कूपिय सन्निवेश के आरक्षिकों ने भगवान् को गुप्तचर समझकर बन्दी बना लिया। भगवान् के मौन ने उनके सन्देह को पुष्ट कर दिया। यह घटना पूरे सन्निवेश में बिजली की भांति फैल गई। वहां भवागन् पार्श्व की परम्परा की दो साध्वियां रहती थीं। एक का नाम था विजया और दूसरी का नाम था प्रगल्भा। इस घटना की सूचना पाकर वे आरक्षि-केन्द्र पहुंचीं। उन्होंने आरक्षिकों को भगवान् का परिचय दिया। भगवान् मुक्त हो गए।
यह नियति की कैसी विडंबना है कि भगवान् मुक्ति की साधना में रत हैं और कुछ उन्हें बन्दी बनाने में प्रवृत्त हैं।
७.लोहार्गला में भी भगवान् के साथ यही हुआ। उस राज्य के अपने पड़ोसी राज्य के साथ तनावपूर्ण सम्बन्ध चल रहे थे। वहां के अधिकारी आने जाने वालों पर कड़ी निगरानी रखते थे। उन्हीं दिनों भगवान् महावीर और गोशालक वहां आ गए। प्रहरियों ने १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २८६-८७ । २. साधना का पांचवा वर्ष । स्थान- कलंबुका सन्निवेश । आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९० ३. साधना का छठा वर्ष। ४. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९१,९२ । ५. साधना का आठवां वर्ष।
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