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________________ कहीं वंदना और कहीं बंदी / ७३ उसने भगवान् को उस विघ्न से मुक्त किया। वह भगवान् को वन्दना कर अपने आवास की ओर चला गया। ४. भगवान् कुमाराक सन्निवेश से चोराक सन्निवेश पहुंचे। वहां चोरों का बड़ा आतंक था। उसके प्रहरी बड़े सतर्क थे। उनकी आंखों से बचकर कोई भी आदमी सन्निवेश में नहीं पुहंच पाता था। प्रहरियों ने भगवान् को देखा और परिचय पूछा । भगवान् मौन रहे । प्रहरी क्रुद्ध हो गए। उस समय गोशालक भगवान् के साथ था। वह भी मौन रहा। प्रहरी और बिगड़ गए। वे दोनों को सताने लगे। एक ओर मौन और दूसरी ओर उत्पीड़न - दोनों लम्बे समय तक चले। सन्निवेश के लोगों ने यह देखा। बात आगे से आगे फैलती गई। उस सन्निवेश में दो परिव्राजिकाएं रहती थीं। एक का नाम था सोमा और दूसरी का नाम था जयंती । वे भगवान् पार्श्व की परम्परा में साध्वियां बनी थीं। वे साधुत्व की साधना में असमर्थ होकर परिव्राजिकाएं बन गई थीं। उन्होंने सुना कि आज सन्निवेश के प्रहरी दो तपस्वियों को सता रहे हैं। प्रहरी उनसे परिचय मांग रहे हैं और वे अपना परिचय नहीं दे रहे हैं। यही उनके सताने का हेतु है। परिवाजिकाओं ने सोचा - 'ये तपस्वी कौन हैं? भगवान् महावीर इसी क्षेत्र में विहार कर रहे हैं। वे साधना मे तन्मय होने के कारण बहुत कम बोलते हैं। कहीं वे ही तो नहीं है?' ___ दोनों परिव्राजिकाएं घटनास्थल पर आई। उन्होंने देखा, भगवान् महावीर मौन और शांत खड़े हैं, प्रहरी अशांत और उद्विग्न । प्रहरी अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं और भगवान् मौन का प्रायश्चित्त। ___'प्रिय प्रहरियो ! ये चोर नहीं हैं। ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र भगवान् महावीर हैं। क्या तुम और परिचय पाना चाहते हो?' परिव्राजिका-युगल ने कहा । प्रहरी अवाक् रह गए। उन्हें अपने कृत्य पर अनुताप हुआ। वे बोले, 'पूज्य परिव्राजिकाओं! हम आपके बहुत-बहुत आभारी हैं। आपने हमें धर्म संकट से उबार लिया है। हम अब और परिचय नहीं चाहते। हम इस तरुण तपस्वी से क्षमा चाहते हैं । इस कार्य में आप हमारा सहयोग कीजिए।' वे प्रायश्चित्त की मुद्रा में भगवान् के चरणों में झुक गए। भगवान् की सौम्यस्निग्ध दृष्टि और मुखमण्डल से टपक रही प्रसन्नता ने उनका भार हर लिया। 'भन्ते ! हमारे प्रहरियों ने आपका अविनय किया है, पर श्रमण-परम्परा के महान् साधक अबोध व्यक्तियों के अज्ञान को क्षमा करते आए हैं । हमें विश्वास है, आप भी उन्हें क्षमा कर देंगे। भन्ते! हमारा छोटा-सा परिचय यह है कि हम दोनों नैमित्तिक उत्पल की बहनें हैं।' १. आयारो, ९ । १ ॥५; आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९९ । २. साधना का चौथा वर्ष। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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