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६०/ श्रमणं महावीर
भगवान् के पास आ, नमस्कार कर बोला, 'भन्ते! मैं शंखराज का भानजा हूं। मेरा नाम चित्त है। मैं शंखराज के साथ आपके दर्शन कर चुका हूं। अभी मैं नौसैनिकों को साथ ले दौत्य कार्य के लिए जा रहा हूं। भन्ते! आप धूप में क्यों खड़े हैं?'
'भूल का प्रायश्चित्त कर रहा हूं।' 'भूल कैसी?'
'मैंने गंडकी नदी नौका से पार की। नौका पर चढ़ते समय मुझे नाविकों की अनुमति लेनी चाहिए थी, वह नहीं ली।'
'इसमें भूल क्या है, सब लोग चढ़ते ही हैं।'
'वे लोग चढ़ते हैं, जो उतराई दे पाते हैं। मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है और ये उतराई मांग रहे हैं। इसीलिए मुझे अनुमति लिये बिना नहीं चढ़ना चाहिए था।'
चित्त ने सैनिक-भावमुद्रा में नाविकों की ओर देखा। वे कांप उठे। भगवान् ने करुणा प्रवाहित करते हुए कहा, 'चित्त! इन्हें भयभीत मत करो। इनका कोई दोष नहीं है। यह मेरा ही प्रमाद है।'
भगवान् की बात सुन चित्त शांत हो गया। उसने नाविकों को सन्तुष्ट कर दिया। भगवान् का परिचय मिलने पर उन्हें गहरा अनुताप हुआ। भगवान् की करुणा देख वे हर्षित हो उठे। भगवान्, चित्त और नाविक - सब अपनी-अपनी दिशा में चले गए।
___ इस घटना ने भगवान् के सामने एक सूत्र प्रस्तुत कर दिया - अपरिग्रही व्यक्ति दूसरे की वस्तु का उपयोग उसकी अनुमति लिये बिना न करे।
१. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ०२९९ ।
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