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बिम्ब और प्रतिबिम्ब / ५९
भान भूल गए।
भगवान् अन्धविश्वास के प्रहार से मुक्त होकर आगे बढ़ गए।
२. भगवान् को वैशाली में भी अन्धविश्वास का शिकार होना पड़ा। वे लुहार के कारखाने में ध्यान कर खड़े थे। लुहार छह महीनों से बीमार था। वह स्वस्थ हुआ। अपने यन्त्रों को लेकर वह काम करने के लिए कारखाने में आया। उसने देखा, कोई नंगा भिक्षु कारखाने में खड़ा है। अपशकुन का विचार बिजली की भांति उसके दिमाग में कौंध गया। वह क्रुद्ध होकर अपने कर्मचारियों पर बरस पड़ा।
'इस नग्न भिक्षु को यहां ठहरने की अनुमति किसने दी?' 'हम सबने।' 'यह मुझे पसन्द नहीं है।' 'हमें पसन्द है।' 'इसे निकाल दो।' 'हम नहीं निकालेंगे।' 'तुम निकाल दिए जाओगे।' 'यह हो सकता है।'
वहां का सामूहिक वातावरण देख लुहार मौन हो गया। वह कुछ आगे बढ़ा। भगवान् के जैसे-जैसे निकट गया, वैसे-वैसे उसका मानस आंदोलित हुआ और वह सदा के लिए शांत हो गया।
भगवान् ने अपने तीर्थंकर-काल में अन्धविश्वास के उन्मूलन का तीव्र प्रयत्न किया। क्या वह इन्हीं अन्धविश्वासपूर्ण घटनाओं की प्रतिक्रिया नहीं है?
३. भगवान् वैशाली से विहार कर वाणिज्यग्राम जा रहे थे। बीच में गंडकी नदी बह रही थी। भगवान् तट पर आकर खड़े हो गए। एक नौका आई। किनारे पर लग गई। यात्री चढ़ने लगे। भगवान् भी उसमें चढ़ गए। नौका चली। वह नदी पार कर तट पर पहुंच गई। यात्री उतरने लगे। भगवान् भी उतरे। नाविक सब लोगों से उतराई लेने लगे। एक नाविक भगवान् के पास आया और उसने उतराई मांगी। भगवान् के पास कुछ नहीं था, वे क्या देते? उसने भगवान् को रोक लिया। यात्री अपनी-अपनी दिशा में चले गए। भगवान् वहीं खड़े रहे।
कुछ समय बीता। नदी में हलचल-सी हो गई। देखते-देखते नौकाओं का काफिला आ पहुंचा। सैनिक उतरे। उनके मुखिया ने भगवान् को देखा। वह तुरन्त दौड़ा। १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९० ॥ २. साधना का छठा वर्ष। ३. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९२ ॥ ४. साधना का पांचवां वर्ष ।
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