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________________ ५६ / श्रमण महावीर दूसरी रूपसी आगे आकर कहने लगी- 'तुम ठीक से देखो, यह पुरुष तो है न?' तीसरी बोली- 'मुझे लगता है, यह कोई नपुंसक है। यदि पुरुष होता तो हमारी उपेक्षा कैसे करता?' तीनों एक साथ कहने लगीं- 'कुमार! अभी युवा हो । इस यौवन को अरण्य-पुरुष की भांति व्यर्थ ही क्यों गंवा रहे हो? लगता है, तुम्हें प्रकृति से रूप का वरदान मिला, पर परिवार अनुकूल नहीं मिला। इसीलिए तुम उसे छोड़ अकेले घूम रहे हो। हम तुम्हारे लिए सर्वस्व का निछावर करने को तैयार हैं । फिर यह मोम का गोला आगी से क्यों नहीं पिघल रहा है?' तीनों के हाव-भाव, विलास और विभ्रम बढ़ गए। उन्होंने रतिप्रणय की समग्र चेष्टाएं कीं। पर भगवान् पर उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ। भगवान् ऊर्ध्व, तिर्यक् और अधः- तीनों प्रकार का ध्यान करते थे। वे ऊर्ध्व ध्यान की साधना के द्वारा काम-वासना के रस को विलीन कर चुके थे। इसलिए उद्दीपन की सामग्री मिलने पर भी उनका काम जागृत नहीं हुआ। चलते-चलते उनके सामने दुस्तर महानदी आ गई। पर वे ध्यान की नौका द्वारा उसे सहज ही पार कर गए। मिट्टी का गोला आग की आंच से प्रदीप्त होता है, किन्तु पिघलता नहीं। ४. श्यामाक वैशाली का प्रसिद्ध वीणावादक है। वह वीणा बजाने की तैयारी कर रहा है। भगवान् सिद्धार्थपुर से विहार कर वैशाली पहुंच रहे हैं। श्यामाक ने भगवान् को देखकर कहा, 'देवार्य ! मैं वीणा-वादन प्रारम्भ कर रहा हूं। आप इधर से सहज ही चले आए हैं। यह अच्छा हुआ। कुछ ठहरिए और मेरा वीणा-वादन सुनिए। मैं आपको और भी अनेक कलाएं दिखाना चाहता हूं। भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। वे आगे बढ़ गए।' इस घटना की मीमांसा का एक कोण यह है कि भगवान् इतने नीरस हैं कि वे कलाकार की कोमल भावना और सधी हुई उंगलियों के उत्क्षेप-निक्षेप की अवहेलना कर आगे बढ़ गए। तो दूसरा कोण यह है कि भगवान् अन्तर्नाद से इतने तृप्त थे कि उन्हें वीणा-वादन की सरसता लुभा नहीं सकी। ५. श्रावस्ती की रंगशाला जनाकुल हो रही है। महाराज ने नाटक का आयोजन किया है। नट मण्डली के कौशल की सर्वत्र चर्चा है । मण्डली के मुखिया ने भगवान् को देख लिया । उसने भगवान् से रंगशाला में आने का अनुरोध किया। भगवान् वहां जाने को १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २६९, ३१० । २. आचारांगचूर्णि, पृ० ३०३ । ३. आचारांगचूर्णि, पृ० ३०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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