SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ । अनुकूल उपसर्गों के अंचल में जल कमल को उत्पन्न करता है। उसके परिमल को फैलाता है पवन। उसकी अनुभूति करता है प्राण । सब अपना-अपना काम करते हैं, तब एक काम निष्पन्न होता है। वह है - परिमल के अस्तित्व का बोध । १. भगवान् दीक्षित होने को प्रस्तुत हुए। परिवार के लोगों ने उनका अभिषेक किया। फिर उनके शरीर को सुवासित किया - किसी ने दिव्य गोशीर्ष-चन्दन से, किसी ने सुगंधि चूर्ण से और किसी ने पटवास से। भगवान् का शरीर सुगंधमय हो गया। मधुकरों को परिमल के अस्तित्व का बोध हुआ। वे पुष्पित वनराजि और कमलकोशों को छोड़ भगवान् के शरीर पर मंडराने लगे। वे चारों ओर दे रहे थे परिक्रमा और कर रहे थे गुंजारव । उपवन का शांत और नीरव वातावरण ध्वनि से तरंगित हो गया। मधुकर भगवान् के शरीर पर बैठे। उन्हें पराग-रस नहीं मिला। उड़कर चले गए। परिमल से आकृष्ट हो फिर आए और पराग न मिलने पर फिर उड़ गए। इस परिपाटी से संरुष्ट हो, वे भगवान् के शरीर को . काटने लगे। २. भगवान् कर्मारग्राम में गए। वहां कुछ युवक सुगंधि से आसक्त हो भगवान् के पास आए। उन्होंने अवसर देख भगवान् से प्रार्थना की, राजकुमार! आपने जिस गंधचूर्ण का प्रयोग किया है, उसके निर्माण की युक्ति हमें भी बताइए।' भगवान् ने इसका उत्तर नहीं दिया। वे क्रुद्ध हो गालियां देने लग गए। ३. भगवान् का शरीर सुगठित, सुडौल और सुन्दर था। उनके धुंघराले बाल बहुत ही आकर्षक लगते थे। उनकी आंखें नीलकमल के समान विकस्वर थी। उनके रूपवैभव को देख अनेक रूपसियां प्रमत्त हो जातीं। एक बार रात के समय भगवान् के पास तीन रूपसियां आई। एक बोली, 'कुमार! तुम्हारी स्त्री कौन है - ब्राह्मणी है या क्षत्रियाणी? वैश्या है या शूद्री?' 'कोई नहीं है।' 'हम बन सकती हैं, तुम किसे पसन्द करते हो?' 'किसी को भी नहीं।' 'अरे! यह कैसा युवक जो हम जैसी रूपसियों को पसन्द नहीं करता?' १. आचारांगचूर्णि, पृ. २९९; आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २३८, २६९ । २. आचारांगचूर्णि, पृ. ३००;आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy