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५४ / श्रमण महावीर
भगवान् की ध्यानमुद्रा अनेक ध्यानाभ्यासी व्यक्तियों को आकृष्ट करती रही है । उनमें एक आचार्य हेमचन्द्र भी हैं। उन्होंने लिखा है
'भगवन्! तुम्हारी ध्यानमुद्रा- पर्यंकशायी और शिथिलीकृत शरीर तथा नासाग्र पर टिकी हुई स्थिर आंखों में साधना का जो रहस्य है, उसकी प्रतिलिपि सबके लिए करणीय है।'
भगवान् प्रायः मौन रहने का संकल्प पहले ही कर चुके हैं। अब जैसे-जैसे ध्यान की गहराई में जा रहे हैं वैसे-वैसे उसका अर्थ स्पष्ट हो रहा है। वाक् और स्पन्दन का गहरा सम्बन्ध है । विचार की अभिव्यक्ति के लिए वाणी और वाणी के लिए मन का स्पन्दन - ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। नीरव होने का अर्थ है मन का नीरव होना । भगवान् के सामने एक तर्क उभर रहा है - जिसे मैं देखता हूं, वह बोलता नहीं है और जो बोलता है, वह मुझे दिखता नहीं है, फिर मैं किससे बोलूं ? इस तर्क के अन्त में उनका स्वर विलीन हो रहा है I
भगवान् बोलने के आवेग के वश में नहीं हैं। बोलना उनके वश में है । वे उचित अवसर पर उचित और सीमित शब्द ही बोलते हैं । वे भिक्षा की याचना और स्थान की स्वीकृति के लिए बोलते हैं। इसके सिवा किसी से नहीं बोलते । कोई कुछ पूछता है तो उसका संक्षिप्त उत्तर दे देते हैं। शेष सारा समय अभिव्यक्ति और संपर्क से अतीत रहता है।
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