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________________ ५२ / श्रमण महावीर और हाथ पैरो से सटकर नीचे की ओर झुके हुए थे । दृष्टि का उन्मेष-निमेष बंद था । उसे किसी एक पुद्गल (बिन्दु) पर स्थिर और सब इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थापित कर ध्यान में लीन हो गए। यह भय और देहाध्यास के विसर्जन की प्रकृष्ट साधना है। इसका साधक ध्यान की गहराई में इतना खो जाता है कि उसे संस्कारों की भयानक उथल-पुथल का सामना करना पड़ता है। उस समय जो अविचल रह जाता है, वह प्रत्यक्ष अनुभव को प्राप्त करता है। जो विचलित हो जाता है वह उन्मत्त, रुग्ण या धर्मच्युत हो जाता है। भगवान् ने इस खतरनाक शिखर पर बारह बार आरोहण किया था । साधना का ग्यारहवां वर्ष चल रहा था। भगवान् सानुलट्ठिय गांव में विहार कर रहे थे। वहां भगवान् ने भद्र प्रतिमा की साधना प्रारम्भ की । वे पूर्व दिशा की ओर मुंह कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो गए। चार प्रहर तक ध्यान की अवस्था में खड़े रहे। इसी प्रकार उन्होंने उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर चार-चार प्रहर तक ध्यान किया । इस प्रतिमा में भगवान् को बहुत आनन्द का अनुभव हुआ । वे उसकी शृंखला में ही महाभद्र प्रतिमा के लिए प्रस्तुत हो गए। उसमें भगवान् ने चारों दिशाओं में एक-एक दिन-र -रात तक ध्यान किया। ध्यान की श्रेणी इतनी प्रलंब हो गई कि भगवान् उसे तोड़ नहीं पाए। वे ध्यान के इसी क्रम में सर्वतोभद्र प्रतिमा की साधना में लग गए। चारों दिशाओ चारों विदिशाओं, ऊर्ध्व और अधः - इन दसों दिशाओं में एक-एक दिन-रात तक ध्यान करते रहे । > 1 भगवान् ने कुल मिलाकर सोलह दिन-रात निरन्तर ध्यान-प्रतिमा की साधना की। भगवान् ध्यान के समय ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक्- तीनों को ध्येय बनाते थे । ऊर्ध्व लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए वे ऊर्ध्व दिशापाती ध्यान करते थे। अधो लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए वे अधोदिशापाती ध्यान करते थे । तिर्यक् लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए तिर्यक्-दिशापाती ध्यान करते थे । ३ १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. ३०१ २. आवश्यकचूर्णि, पृ० ३०० । ३. (क) दिशापाती ध्यान में दिशा-क्रम१. ऐंद्री ६. वायव्या २. आग्नेयी ७. सोमा ८. ऐशानी ९. विमला (ऊर्ध्व) ३. याम्या ४. नैर्ऋती ५. वारुणी (ख) आयारो, ९१४ | १४ १०. तमा (अध:) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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