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________________ ध्यान, आसन और मौन /५१ 'तुम मेरा आशय नहीं समझे । अचेतन का दर्शन उसी को होता है, जिसका चैतन्य अनावृत हो जाता है और चैतन्य का अनावरण मन को चैतन्य में विलीन करने से होता है। इसलिए मैंने महावीर के ध्यान का अर्थ-आत्मा को देखना, मन के उद्गम को देखना – किया है।' मैं बहुत-बहुत कृतज्ञता ज्ञापित कर अपने अन्तःकरण में लौट आया। मैंने सोचा, जिन लोगों के मानस में महावीर की दीर्घतपस्विता की प्रतिमा अंकित है, उनके सामने मैं महावीर की दीर्घध्यानिता की प्रतिमा प्रस्तुत करूं। महावीर ने दीक्षित होकर पहला प्रवास कर्मारग्राम में किया। ध्यान का पहला चरण-विन्यास वहीं हुआ। वह कैवल्य-प्राप्ति तक स्पष्ट होता चला गया। कुछ साधक ध्यान के विषय में निश्चित आसनों का आग्रह रखते थे। महावीर इस विषय में आग्रहमुक्त थे। वे शरीर को सीधा और आगे की ओर कुछ झुका हुआ रखते थे। वे कभी बैठकर ध्यान करते और कभी खड़े होकर । वे अधिकतर खड़े होकर ध्यान किया करते थे। वे शिथिलीकरण को ध्यान के लिए अनिवार्य मानते थे, इसलिए वे खड़े हों या बैठे, कायोत्सर्ग की मुद्रा में ही रहते थे। श्वास की सूक्ष्म क्रिया के अतिरिक्त अन्य सभी (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) क्रियाओं का विसर्जन किए रहते थे।२ कुछ साधक ध्यान के लिए निश्चित समय का आग्रह करते थे। महावीर इस आग्रह से मुक्त थे। वे अधिकांश समय ध्यान में रहते थे। उन्हें न शास्त्रों का अध्ययन करना था, और न उपदेश । उन्हें करना था अनुभव या प्रत्यक्ष बोध । वे दूसरों की गायें चराने वाले ग्वाले नहीं थे जो समूचे दिन उन्हें चराते रहे और दूध दूहने के समय उनके स्वामियों को सौंप आएं । अपनी गायें चराते और उनका दूध दूहते थे। महावीर स्वालंबन और निरालंबन - दोनों प्रकार का ध्यान करते थे। वे मन को एकाग्र करने के लिए दीवार का आलंबन लेते थे। प्रहर-प्रहर तक तिर्यभित्ति (दीवार) पर अनिमेषदृष्टि टिकाकर ध्यान करते थे। इस त्राटक-साधना से केवल उनका मन ही एकाग्र नहीं हुआ, उनकी आंखें भी तेजस्वी हो गई। ध्यान के विकासकाल में उनकी त्राटक-साधना (अनिमेषदृष्टि) बहुत लम्बे समय तक चलती थी। एक बार भगवान् दृढभूमि प्रदेश में गए। पेढ़ाल नाम का गांव व पोलाश नाम का चैत्य। वहां भगवान् ने 'एकरात्रिकी प्रतिमा की साधना की। आरंभ में तीन दिन का उपवास किया। तीसरी रात को शरीर का व्युत्सर्ग कर खड़े हो गए। दोनों पैर सटे हुए थे १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २६८ । २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३०१ । ३. आयारो, ९।१।५; आचारांगचूर्णि, पृ.३००,३०१ । ४. साधना का ग्यारहवां वर्ष। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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