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क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूं?
पुष्य उस समय का प्रसिद्ध सामुद्रिक था। उसका ज्ञान अचूक था। दूर-दूर के लोग उसके पास अपना भविष्य जानने के लिए आते थे। उसे अपनी सफलता पर गर्व था। एक दिन वह घूमता-घूमता गंगा के तट पर पहुंचा। उसने वहां तत्काल अंकित चरण-चिह्न देखे। वह आश्चर्य के सागर में डूब गया।
'ये किसके चरण हैं?' उसने मन-ही-मन इसे दो-चार बार दोहराया। 'जिसके ये चरण-चिह्न हैं, वह कोई साधारण आदमी नहीं है, वह कोई साधारण राजा नहीं है, वह चक्रवर्ती होना चाहिए। चक्रवर्ती और अकेला, यह कैसे? चक्रवर्ती और पदयात्री, यह कैसे? चक्रवर्ती और नंगे पैर, यह कैसे? कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं? वह सन्देह के सागर में डूब गया।
वह चरण-चिह्नों के पास जाकर बैठा । गहरी तन्मयता और सूक्ष्मता से उन्हें देखा। 'मैं स्वप्न में नहीं हूं' - उसे अपने पर भरोसा हो गया। उसके मन में वितर्क हुआ - यदि सामुद्रिक-शास्त्र सच्चा है और मैंने श्रद्धा के साथ उसे अपने गुरु से समझा है तो निश्चित ही यह व्यक्ति चक्रवर्ती होना चाहिए। यदि यह चक्रवर्ती नहीं है तो सामुद्रिक-शास्त्र झूठा है। उसे मैं गंगा की जलधारा में बहा दूंगा और मैं इस निष्कर्ष पर आ जाऊंगा कि मेरे गुरु ने मुझे वह शास्त्र पढ़ाया, जिसकी प्रामाणिकता आज कसौटी पर खरी नहीं उतरी।
वह चरण-चिह्नों का अनुसरण करते-करते थूणाक सन्निवेश के पास पहुंच गया। उसने देखा, सामने एक व्यक्ति ध्यान मुद्रा में खड़ा है। ये चरण-चिह्न इसी व्यक्ति के हैं। वह भगवान् के सामने जाकर खड़ा हो गया। शरीर पर एक अर्थभरी दृष्टि डाली - पैर से सिर तक। वह फिर असमंजस में खो गया। इसके शरीर के लक्षण बतलाते हैं कि यह चक्रवर्ती है और इसकी स्थिति से प्रकट होता है यह पदयात्री भिक्षु है । वह कुछ देर तक दिग्भ्रांत-सा खड़ा रहा। भगवान् ध्यान से विरत हुए। पुष्य अभिवादन कर बोला, 'भंते! आप अकेले कैसे?' ___'इस दुनिया में जो आता है, वह अकेला ही आता है और अकेला ही चला जाता है, दूसरा कौन साथ देता है?'
'नहीं भंते! मैं तत्व की चर्चा नहीं कर रहा हूं। मैं व्यवहार की बात कर रह रहा
हूं।'
१. साधना का दूसरा वर्ष। स्थान- थूणाक सन्निवेश।
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