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४०/ श्रमण महावीर
जानता था कि मुक्त जल का भार नहीं लगता। जलभरा घट सिर पर रखने पर भार की अनुभूति होती है। यह बन्धन की अनुभूति है। शरीर के घट में बंधी हुई चेतना को कष्ट का अनुभव होता है । ध्यान-काल में वह समुद्र-जल की भांति बंधन-मुक्त हो जाती है। फिर शरीर पर जो कुछ बीतता है, उसका अनुभव नहीं होता। ध्यान के तट पर खड़े होकर तुम सोचते हो कि भगवान् ने इतने कष्ट कैसे सहे?'
इस समाधान ने मुझे यथार्थ के जगत् में पहुंचा दिया। अब मेरे कानों में ध्यान-कोष्ठ की महिमा का वह स्वर गूंजने लगा
प्रलय पवन संवलित शीत भी, जहां चंक्रमण नहीं कर पाता। प्रखरपवन प्रेरित ज्वालाकुल, प्रज्वल हुतवह नहीं सताता । पूर्ण लोकचारी कोलाहल, जहां नहीं बाधा पहुंचाता। ध्यानकोष्ठ की उस संरक्षित, वेदी का हूं मैं उद्गाता। इस स्वर की हजारों प्रतिध्वनियों में मेरे सब प्रश्न विलीन हो गए।
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