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आदिवासियों के बीच / ३९
'क्या भगवान् आदिवासी लोगों से बातचीत करते थे?' मैंने पूछा 1 देवर्धिगणी ने कहा, 'भगवान् बातचीत करने में रस नहीं लेते थे । उनका रस सब विषयों से सिमटकर केवल सत्य की खोज में ही केन्द्रित हो रहा था । अपरिचित चेहरा देखकर कुछ लोग भगवान् के पास आकर बैठ जाते । वे पूछते - 'तुम कौन हो ?
'मैं भिक्षु हूं।' 'कहां से आए हो?'
'वैशाली से यहां आया हूं।' 'यहां किसलिए आये हो?'
'एकांतवास के लिए । '
एक-दो प्रश्न का उत्तर दे भगवान् फिर मौ हो जाते। वे लोग आश्चर्यपूर्ण दृष्टि से उन्हें देखते रहते। कुछ दूसरे लोग चले आते। वे मखौल की भाषा में कहते - नग्न और अर्धनग्न लोगों की कैसी जोड़ी मिली है !"
' आदिवासियों के अप्रिय व्यवहार पर भगवान् क्या सोचते थे ? '
'भगवान् तत्वद्रष्टा थे। वे जानते थे कि मनुष्य की वृत्तियों का परिष्कार हुए बिना वह अप्रिय, अशिष्ट और उच्छृंखल व्यवहार करता है । इसलिए आदिवासी लोगों के व्यवहार पर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ । '
भगवान् अहिंसा के महास्रोत थे। उन्होंने अपनी वृत्तियों को मैत्री की भावना से भावित किया था। वे मनुष्य को अपनी दृष्टि से देखते थे। उनकी दृष्टि सामने वाले के व्यवहार से प्रतिबिम्बित नहीं होती थी । इसलिए आदिवासी लोगों के प्रति उनके मन में वही प्रेम प्रवाहित था, जिसका प्रवाह हर प्राणी को आप्लावित किये हुए था।'
'लम्बा प्रवास और कष्टपूर्ण यात्रा
इस स्थिति में भगवान् को कभी-कभी
खिन्नता का अनुभव हुआ होगा?'
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'कभी नहीं। उनकी मुद्रा निरंतर प्रसन्न रहती थी ।' 'क्या प्रसन्नता का हेतु परिस्थिति नहीं है?"
'यह मैं कैसे कहूं कि नहीं है और यह भी कैसे कहूं कि वही है। जो प्रसन्नता अनुकूल परिस्थिति से प्राप्त होती है, वह प्रतिकूल परिस्थिति से ध्वस्त हो जाती है । किन्तु भावना के बल से प्राप्त प्रसन्नता परिस्थिति के वात्याचक्र से प्रताड़ित नहीं होती । ' 'भन्ते ! भगवान् ने इतने कष्ट कैसे सहे ?'
'एक आदमी समुद्र में तैर रहा था। दूसरा तट पर खड़ा था । तैराक ने डुबकी लगाई । तट पर खड़े आदमी ने सोचा- तैराक इतना जलभार कैसे सहता है? वह नहीं १. आचारांगचूर्णि, पृ. ३२० ।
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