________________
३८/ श्रमण महावीर
, 'क्या उस पर्वतीय प्रदेश में भगवान् को जंगली जानवरों का कष्ट नहीं हआ?'
'मुझे नहीं मालूम कि उन्हें सिंह-बाघ का सामना करना पड़ा या नहीं, किन्तु यह मुझे मालूम है कि कुत्तों ने उन्हें बहुत सताया। वहां कुत्ते बड़े भयानक थे। पास में लाठी होने पर भी वे काट लेते थे। भगवान् के पास न लाठी थी और न नालिका । उन्हें कुत्ते घेर लेते और काटने लग जाते । कुछ लोग छू-छूकर कुत्तों को बुलाते और भगवान् को काटने के लिए इंगित करते । वे भगवान् पर झपटते, तब आदिवासी लोग हर्ष से झूम उठते। कुछ लोग भले भी थे। वे वहां जाकर कुत्तों को दूर भगा देते थे।
एक बार भगवान् पूर्व दिशा की ओर मुंह कर खड़े-खड़े सूर्य का आतप ले रहे थे। कुछ लोग आए । सामने खड़े हो गए। भगवान् ने उनकी ओर नहीं देखा । वे चिढ़ गये। वे हूं-हूं कर भगवान् पर थूककर चले गए। भगवान् शांत खड़े रहे । वे परस्पर कहने लगे, 'अरे! यह कैसा आदमी है, थूकने पर भी क्रोध नहीं करता, गालियां नहीं देता।'
एक बोला, 'देखो, मैं अब इसे गुस्से में लाता हूं।'
वह धूल लेकर आया। भगवान् की आंखें अधखुली थीं। उसने भगवान् पर धूल फेंकी। भगवान् ने न आंखें मूंदी और न क्रोध किया। उस का प्रयत्न विफल हो गया। उसने क्रुद्ध होकर भगवान् पर मुष्टि-प्रहार किया। फिर भी भगवान् की शांति भंग नहीं हुई। उसने ढेले फेंके। हड्डियां फेंकी। आखिर भाले से प्रहार किया। लोग खड़े-खड़े चिल्लाने लगे । भगवान् वैसे ही मौन और शांत थे। उनकी मुद्रा से प्रसन्नता टपक रही थी। वह बोला, 'चलो, चलें। यह कोई आदमी नहीं है। यदि आदमी होता तो जरूर गुस्से में आ जाता।
एक बार भगवान् पर्वत की तलहटी में ध्यान कर रहे थे। पद्मासन लगाकर बैठे थे। कुछ लोग जंगल में काम करने के लिए जा रहे थे। उन्होंने भगवान् को बैठे हुए देखा । वे इस मुद्रा में बैठे आदमी को पहली बार देख रहे थे। वे कुतूहलवश खड़े हो गए। घंटा भर खड़े रहे । भगवान् तनिक भी इधर-उधर नहीं डोले । वे असमंजस में पड़ गए। यह कौन है, कोई आदमी है या और कुछ? एक आदमी आगे बढ़ा। उसने जाकर धक्का दिया। भगवान् लुढ़क गए। भगवान् फिर पद्मासन लगा ध्यान में स्थिर हो गए। वे भद्रप्रकृति के आदमी थे। भगवान् की प्रशांत मुद्रा देख उनका शांतभाव जागृत हो गया । वे भगवान् के निकट आए, पैरों में प्रणत होकर बोले, 'हमने आपको कष्ट दिया है। आप हमें क्षमा करना।३
१. आयारो,९३३-६।। २. आयारो, ९।३।१०,११; आचारांगचूर्णि पृ. ३२० । ३. आयारो, ९।३।१२ : आचारांगचूर्णि पृ० ३२० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org