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आदिवासियों के बीच / ३७
'कभी पर्वत की कंदराओं में, कभी खण्डहरों में और बहुत बार पेड़ों के नीचे।' 'तब तो उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा?'
'क्या पूछते हो, वह पर्वताकीर्ण प्रदेश है। वहां सर्दी, गर्मी और वर्षा - तीनों बहुत होती हैं।'
'क्या भगवान् तीनों ऋतुओं में वहां रहे हैं?'
'भगवान् का पहला विहार हुआ तब सर्दी का मौसम था । दूसरे विहार में गर्मी और वर्षा - दोनों ऋतुओं ने उनका आतिथ्य किया।'
'क्या उनका पहला प्रवास दूसरे प्रवास से छोटा था?' ।
'दूसरा प्रवास छह मास का था। पहला प्रवास दो-तीन मास से अधिक नहीं रहा।
'आदिवासी लोगों का व्यवहार कैसा रहा?'
'उस प्रदेश में तिल नहीं होते थे। गाएं भी बहुत कम थीं। जो थीं, उनके भी दूध बहुत कम होता था। वहां कपास नहीं होती थी। आदिवासी घास के प्रावरण ओढ़तेपहनते थे। उनका भोजन रूखा था - घी और तेल से रहित । वहां के किसान प्रातःकालीन भोजन में अम्लरस के साथ ठंडा भात खाते थे। उसमें नमक नहीं होता था। मध्याह्न के भोजन में वे रूखे चावल और मांस खाते थे। इस रूक्ष भोजन के कारण वे बहुत क्रोधी थे। बात-बात पर लड़ते-झगड़ते रहते थे। गाली देना और मारना-पीटना उनके लिए सहज कर्म जैसा था। भगवान् एक गांव में जा रहे थे। ग्रामवासी लोगों ने कहा, 'नग्न! तुम किसलिए हमारे गांव में जा रहे हो? वापस चले जाओ।' भगवान् वापस चले आए।
भगवान् एक गांव में गए। वहां किसी ने ठहरने को स्थान नहीं दिया। वे वापस जंगल में जा पेड़ के नीचे ठहर गए।
'आप क्षमा करेंगे, मैं बीच में ही एक बात पूछ लेता हूं - भगवान् एकांतवास के लिए वहां गए, फिर उन्हें क्या आवश्यकता थी गांव में जाने की?'
'भगवान् आहार-पानी लेने के लिए गांव में जाते थे। छह मासिक प्रवास में वे वर्षावास बिताने के लिए गांव में गये। कहीं भी कोई स्थान नहीं मिला। उन्होंने वह वर्षावास इधर-उधर घूमकर, पेड़ों के नीचे, बिताया। कभी-कभी आदिवासी लोग रुष्ट होकर उन्हें शारीरिक यातना भी देते थे।' १. आचारांगचूर्णि, पृ. ३१९; आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २९६; आचारांगवृत्ति, पत्र २८२ । २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९० । ३. आचारांगचूर्णि, पृ० ३१८, ३१९ । ४. आचारांगचूर्णि, पृ० ३२० । ५. आयारो, ९।३।८; आचारांगचूर्णि, पृ०३१९ । ६. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९६ ।
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