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________________ भय की तमिस्रा : अभय का आलोक / ३१ यह परमात्मपद तक पहुंचने की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अतः कोई भी महान् साधक इसका अतिक्रमण नहीं कर पाता। २. यह साधना का दूसरा वर्ष है। भगवान् महावीर दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर जा रहे हैं। उन्होंने कनकखल आश्रम के भीतर से जाने वाले मार्ग को चुना है। वे कुछ आगे बढ़े । रास्ते में ग्वाल मिले । उन्होंने कहा, 'भंते! इधर से मत जाइए। 'क्या यह मार्ग उत्तर वाचाला की ओर नहीं जाता?' 'भन्ते ! जाता है। 'क्या यह बाहर से जाने वाले मार्ग से सीधा नहीं है?' 'भन्ते ! सीधा है।' 'फिर! इस मार्ग से क्यों नहीं जाना चाहिए मुझे?' 'भन्ते! यह निरापद नहीं है।' 'किसका डर है इस मार्ग में?' 'भन्ते ! इस मार्ग के पास चंडकौशिक नाम का सांप रहता है। वह दृष्टिविष है । जो आदमी उसकी दृष्टि के सामने आ जाता है, वह भस्म हो जाता है । कृपया आप वापस चलिए। महावीर का मन पुलकित हो गया । वे अभय और मैत्री - दोनों की कसौटी पर अपने को कसना चाहते थे। यह अवसर सहज ही उनके हाथ आ गया। उन्होंने साधक की भाषा में सोचा - 'मूढ़ आत्मा जिसके प्रति विश्वस्त है उससे अधिक दूसरा कोई भय का स्थान नहीं है। वह जिससे भयभीत है, उससे अधिक दूसरा कोई अभय का स्थान नहीं है। बेचारे ग्वाले देखते ही रह गये। महावीर के चरण आगे बढ गये। महावीर का आज का ध्यान-स्थल देवालय का मंडप है। वही मंडप विषधर चंडकौशिक की क्रीड़ा-स्थली है। भगवान् मंडप के मध्य में कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हैं। दोनों हाथ नीचे झूल रहे हैं। उनकी अंगुलियां घुटनों को छू रही हैं । एडियां सटी हुई हैं। पंजों के बीच में चार अंगुल का अन्तर है। अनिमेष चक्षु नासाग्र पर टिके हुए हैं । शरीर शिथिल, वाणी मौन, मंद श्वास और निर्विचार मन । भगवान् ध्यानकोष्ठ में पूर्णतः प्रवेश पा चुके हैं । बाह्य-जगत् और इन्द्रिय-संवेदनाओं से उनका सम्बन्ध विच्छिन्न हो चुका है। अब उनका विहार अन्तर्-जगत् में हो रहा है। वह जगत् ईर्ष्या, विषाद, शोक, भय आदि मानसिक दुःखों की सम्बाधा और सर्दी, गर्मी, विष, शस्त्र आदि शारीरिक दुःखों की संवेदना से अतीत है। चंडकौशिक जंगल में घूमकर देवालय में आया। मंडप में प्रवेश करते ही उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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