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२६ / श्रमण महावीर
जा रहे हैं । सचमुच अकेले ! विसर्जन की साधना प्रारम्भ हो चुकी है - देह के ममत्व का विसर्जन, संस्कारों का विसर्जन, विचारों का विसर्जन और उपकरण का विसर्जन ।
मैंने मृदु-मंद स्वर में कहा, 'यह शरीर धर्म का आद्य साधन है । शरीर धर्म का साधन नहीं है, वह शरीर धर्म का आद्य साधन है जो आसक्ति के नागपाश से मुक्त हो चुका है । '
हमारी यात्रा समस्वरता में सम्पन्न हो गई । भगवान् के शरीर पर वह दिव्य दूष्य उपेक्षा के दिन बिता रहा था। न भगवान् उसका परिकर्म कर रहे थे और न वह उनकी शोभा बढ़ा रहा था।
साधना का दूसरा वर्ष और पहला मास । भगवान् दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला को जा रहे थे। दोनों सन्निवेशों के बीच में दो नदियां बह रह थींसुवर्णबालुका और रूप्यबालुका । सुवर्णबालुका के किनारे पर कंटीली झाड़ियां थीं। भगवान् उनके पास होकर गुजर रहे थे। भगवान् के शरीर पर पड़ा हुआ वस्त्र कांटों में उलझ गया । भगवान् रुके नहीं, वह शरीर से उतर नीचे गिर गया। भगवान् ने उस पर एक दृष्टि डाली और उनके चरण आगे बढ़ गए।
भगवान् के पास अपना बताने के लिए केवल शरीर था और वास्तव में उनका अपना था चैतन्य । वह चैतन्य जिसके दोनों पाश्र्व में निरन्तर प्रवाहित हो रहे हैं दो निर्झर । एक का नाम है आनन्द और दूसरे का नाम हैं वीर्य ।
पहले शरीर के साथ प्रेम का सम्बन्ध था, अब उसके साथ विनिमय का सम्बन्ध है । पहले उधार का व्यापार चल रहा था, अब नकद का व्यापार चल रहा है। भगवान् का अधिकांश समय ध्यान में बीतता है। वे बहुत कम खाते हैं, उतना - सा खाते हैं जिससे यह गाड़ी चलती रहे ।
शरीर के साथ उनके सम्बन्ध बहुत स्वस्थ थे। वे उसे आवश्यक पोषण देते थे और वह उन्हें आवश्यक शक्ति देता था। वे उसे अनावश्यक पोषण नहीं देते थे और वह उन्हें अनावश्यक ( विकारक, उत्तेजक या उन्मादक) शक्ति नहीं देता था ।
भगवान् का अपना कोई घर नहीं था । उनका अधिकतम आवास शून्यगृह, देवालय, उद्यान और अरण्य में होता था । कभी-कभी श्मशान में भी रहते थे । साधना के प्रथम वर्ष में वे कोल्लाक सन्निवेश से मोराक सन्निवेश पहुंचे। उसके बहिर्भाग में घुमक्कड़ तापसों का आश्रम था। वे वहां गए। आश्रम
१. आयारचूला ९।२।२,३ ।
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