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________________ असंग्रह का वातायन: अभय का उच्छ्वास एक दिन मैं सूक्ष्म लोक में विहार कर रहा था । अकस्मात् शरीर चेतना से संपर्क स्थापित हो गया। मैंने पूछा, 'शरीर धर्म का आद्य साधन है' - यह तुम्हारी स्वयं की अनुभूति है या दूसरों की अनुभूति का शब्दावरण ?' 'क्या इसमें आपको सच्चाई का भान नहीं होता ?" 'मुझे यह अपूर्ण सत्य लग रहा है।' 'वाणी में उतरा हुआ सत्य अपूर्ण ही होगा। उसमें आप पूर्णता की खोज क्यों कर रहे हैं?" 'मनुष्य - लोक की समस्या से सम्भवतः तुम अपरिचित हो । शरीर की प्रतिष्ठा के साथ स्वार्थ और व्यक्तिवाद प्रतिष्ठित हो गए हैं। इस समस्या के समाधान के लिए पूर्णता की खोज क्या अपेक्षित नहीं है ? तुम्हारी अनुभूति का मूल्य इस सत्य के संदर्भ में ही हो सकता है - शरीर अधर्म का आद्य साधन है ।' 'यह कैसे ?" 'अधर्म का मूल आसक्ति है, मूर्च्छा है। उसका प्रारम्भ शरीर से होता है। फिर वह दूसरों तक पहुंचाती है । ' मुझे प्रतीत हुआ है कि शरीर चेतना मेरी गवेषणा का अनुमोदन कर रही है फिर भी मैंने अपनी उपलब्धि की पुष्टि में कुछ कह दिया - ". 'भगवान् महावीर ने सत्य का साक्षात्कार करने पर कहा, 'चेतन और देह की पृथक्ता का बोध हुए बिना दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता ।' सांख्य-दर्शन का अभिमत है - 'विवेक ख्याति प्राप्त किए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । ' वेदान्त का सिद्धान्त है - 'देहाध्यास से मुक्ति पाए बिना साधना का पथ प्रशस्त नहीं होता ।' मैं शरीर - चेतना को भगवान् महावीर के दीक्षाकालीन परिपार्श्व में ले गया । हमने देखा - महावीर घर छोड़कर अकेले जा रहे हैं। उनके शरीर पर केवल एक वस्त्र है, वही अधोवस्त्र और वही उत्तरीय । फिर आभूषणों की बात ही क्या? वे शरीर-अलंकरण को छोड़ चुके हैं। पैरों में जूते नहीं है। भूमि और आकाश के साथ तादात्म्य होने में बाधा नहीं आ रही है। भोजन के लिए कोई पात्र नहीं है। पैसे का प्रश्न ही नहीं है। वे अकेले चले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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